पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३५२

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सारप्रबोधवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (३२३३) चिदावलीपर्यंतसर्वकोत्यागिकारिइनका जोसारचेतनमात्रआत्माहै,तिसविवे स्थितहोडु, विश्वकलनामात्र है, आत्माविषे कछुनहीं,संकल्पकी दृढ़ताकरिकै सतकी नाई भासती है, अरु आगे भी शुक्र अरु लवणराजा अरु इंद्रके पुत्रोंका वृत्तांत कहा है; जो संकल्पकी भावनाते दृढ होकर भासि आयाथा, सो वास्तव कछु नहीं, तैसे यह विश्व भी चित्तके फुरणे विषे स्थित है, असम्यक् दृष्टि कारकै अद्वैत आत्माविषे दृश्य भासता है, जैसे सूर्य की किरणोंविषे जल भासताहै, तैसे आत्माविषे अहंकार आदिक अज्ञानकारि दृश्य भासता है, ताते इनको त्यागिकार अपने वास्तव स्वरूपविषे स्थित होई ॥ हे रामजी! एक गड तेरे ताई कहता हौं, जिसविषे किसी शत्रुकी गम नहीं, तिसविषे स्थित होहु हम, भी तिसी गडविषे स्थित हैं, जेते ज्ञानवान हैं, सो भी तिसीविषे स्थित होते हैं । हे रामजी ! काम क्रोध लोभ अभिमानादिक विकार आत्माविषे नहीं होते, जैसे रात्रिविषे दिन नहीं होता, तैसे विकाररूपी दिन गडरूपी रात्रिविषे नहीं होता, ताते अचिंत्यरूप गड है,जहाँ फुरणा कोऊ नहीं, केवल शतरूप है। तिसविषे अहंभाव त्यागिकार स्थित होवै, तब अहं त्वं भाव निवृत्त हो जावै, जब स्वरूपका साक्षात्कार होता है, तब ज्ञानी फुरणे अफुरणेविषे स्वरूपको तुल्य देखता है, संपूर्ण जगत तिसको आत्मरूप भासता है,ताते चिदावलीते आदि देहपर्यंत जो अनात्म है,तिसको क्रमकारिकै त्याग,प्रथम देहको त्याग, बहुरि इंद्रियों के अभिमानको त्याग, तिसी क्रमकार सर्वको त्यागिकै अपने वास्तवस्वरूपविषे स्थित होहु ॥इति श्रीयोगवासिष्ठेनिवयाप्रकरणे जीवत्वाभावप्रतिपादनं नाम शताधिकाष्टमः सर्गः ॥ १०८॥ शताधिकनवमः सर्गः १०९ सारप्रबोधवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! यह संसार चेतनमात्र है, आत्माले इतर कछु नहीं आत्माही विश्वरूप होकार स्थित हुआ है, जैसे सूर्यकी किरणोंमेंही जलाभास होता है, तैसे आत्माको चमत्कार दृश्यरूप होकार