पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३५

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(९१६)
योगवासिष्ठ।

जो उनकी सुषुप्त वासना है, जैसे बीजविषे अंकुर होताहै, बहुरि उगता है, तैसे उनको जन्म होवैंगे अरु वासना जागैगी, जो उनके अंतर जगत‍्की सत्यता है, अरु बाह्य नहीं दृष्टि आती, सो सुषुप्तवत् जडधर्म है, बहुरि अनंत जन्मके दुःख पावैंगे॥ हे रामजी! स्थावर जो अब जड धर्म सुषुप्त पदविषे स्थित है, सो वारंवार जन्मको पावैंगे जैसे बीजविषे पत्र टास फूल फल स्थित होते हैं, जैसे मृत्तिकाविषे घटशक्ति स्थित होती है, तैसे स्थावरविषे वासना स्थित है, जहां वासनारूपी बीज है, सो सुषुप्तरूप कहाता है, सो सिद्धता जो मुक्ति है, तिसको नहीं प्राप्त करती, अरु जहां निर्बीज वासना है, सो तुरीया पद है, सिद्धताको प्राप्त करती है॥ हे रामजी! जब चित्तशक्ति वासनासाथ मिली होती है, तब स्थावर होती है, सो बहुरि जागती हैं, जैसे कोऊ कर्म करता सोय जाता है, सुषुप्तिते उठिकरि बहुरि वही कर्म करने लगता है, कर्मरूपी वासना तिसके अंतर रहती है, तैसे स्थावर वासना करिकै बहुरि जन्मको पावैंगे, जब वह वासना अंतरते दग्ध हो जावै, तब जन्मका कारण नहीं होती, अरु आत्मसत्ता समान करिकै घरपट आदिक सर्व पदार्थविषे स्थित है, जैसे वर्षाकालका मेघ एकही नानारूप होकरि स्थित होता है, तैसे आत्मसत्ता एकही सर्व पदार्थविषे स्थित होती हैं, ताते सर्व आत्माही व्यापि रहा है, ऐसी दृष्टिते जो रहित है, तिसको विपर्ययदृष्टि भ्रमदायक होती है, जब आत्मदृष्टि प्राप्त होती है, तब सबै दुःख नाश हो जाते हैं॥ हे रामजी! असम्यक् दृष्टिका नाम अविद्या बुद्धीश्वर कहते है, सो अविद्या जगत‍्का कारण है, तिसकरि सब पसारा होता है, तिसते रहित जब अपना स्वरूप भासै तब अविद्या नष्ट होती है, जैसे बर्फकी कणिका धूपकरि नाश होजाती है, तैसे शुद्ध स्वरूपके अभ्यासकरि अविद्या नष्ट हो जाती है, जैसे स्वप्नते रहित जब अपना स्वरूप देखता है, तब बहुरि स्वप्नकी ओर नहीं जाता है, तैसे शुद्ध स्वरूपके अभ्यासकरि संपूर्ण भ्रम निवृत्त हो जाता है॥ हे रामजी! जब वस्तुको वस्तु जानता है, तब अविद्या नष्ट हो जाती है, जैसे प्रकाशकरि अंधकार नष्ट हो जाता है, दीपकको हाथमें लेकरि देखिये तब अंधकार