पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३३२

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समाधानवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१२१३) जब रस्सी टूटि पड़ती है, तब न ऊर्ध्वको जाता है, न अधको जाता है, दुःख पाता है, सो कूप क्या है, अरु अध क्या है, ऊर्ध्व क्या है, सो श्रवण करु ॥ हे राजन् ! संसाररूपी कूप, स्वर्गलोक ऊध्र्व अरु पाताल नरक अध है, पुण्यकर्मकार स्वर्गको जाता है, पापकर्मकार नरककोजाता हैं; सो आशारूपी रसडीसाथ बाँधाहुआ जन्मरणरूपी चक्रविषे फिरता है, स्वर्गनरकके फेरनेका कारण आशा है, जब आशा निवृत्त होती,तब न कोऊ नरक है, न स्वर्ग है, जबलग देहविषेअभिमान है, तबलग नीचते नीचगतिको प्राप्त होताहै, जैसे पत्थरकीशिलासमुद्रविषे डारिये,तौनीचेते नीचे चली जाती है; तैसे नीच स्थानोंको देखिकार देहअभिमानीनीचेको चला जाता है, अरु जब इंद्रियादिकका अभिमान त्याग किया, तब जैसे क्षीरसमुद्रते निकसिकार चंद्रमा ऊर्ध्वते ऊर्ध्वको चला जाता है, तैसे ऊध्वैको जाता है । हे राजन् ! जब आत्माकी भावना करैगा तब आत्माही होवैगा, ताते आशारूपी फांसी तोड़िकर शांतपको प्राप्त होहु, आत्मा चिंतामणिकी नाईं है,जैसी भावना करिये, तैसीसिद्धिहोयै जब तू आत्मभावना केरेगा, तब संपूर्ण विश्व अपनेविषे देखेगा, जैसे पर्वत शिलापत्थर सर्व अपनेविषे देखताहै, तैसे तू सर्वात्माविषे जानेगा। हे राजन् ! जेती कछु दृष्टि हैं, सो सर्व आत्माके आश्रय हैं, शास्त्र अरु शास्त्रदृष्टि सब आत्माके आश्रय हैं; राजा आत्माके आश्रय हैं, सो सर्व सत्य, आत्मा चिंतामणि कल्पवृक्ष है, जैसी को भावना करता है, तैसी सिद्धि होती है । हे राजन् ! ऊरणेविषे यह दृष्टि सर्व सत्य है, जब ऊरणा नष्ट भया, तब न कोऊ शास्त्र है, न कोऊ दृष्टि है, केवल अद्वैत आत्मा है, तब निषेध किसका कारये, अरु अंगीकार किसको करिये, जो पुरुषअहंकारते रहित हुआहैं,सो सर्व शास्त्रदृष्टिऊपर बिराजताहे, सर्व आत्मा होता है, जैन उसीको जिन कहते हैं, कालवाले उसीको काल कहते हैं, सर्वका आश्रय आत्मा है, जो पुरुष देहअभिमानीहै, सो मूर्ख है, स्वरूपके अज्ञानकारि अधऊध्र्वं लोकको गमनागमन करता है,अरु पशु पक्षी स्थावर जंगम योनिको पाता है, अरु आशारूपी फाँसीसाथ बाँधा हुआ दुःखको प्राप्त होता है, अरु जो पुरुष सम्यक्दश है, शुद्ध