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(१२१२) योगवासिष्ठ


तिसीके ज्ञानकारी लीन हो जाता है, ताते इस संवेदनको त्यागिकरिआ-त्माकी भावना करु, यह मैं हौं,यह मेरे हैं, सो मिथ्याही फुरतेहैं। हेसजन् । प्रथम जो कारणरूपते एक जीव उपजा है, तिस आदि जीवते अनेक जीवगण होतेभये हैं, जैसे अग्निके चिणगारे निकसते हैं, तैसे तिस जीवनै आगे अनेकरूप धारे हैं, कोऊ गंधर्व, कोऊ विद्याधर,कोऊ मनुष्य, कोऊ राक्षस इत्यादिक बहुरि जैसे जैसे संकल्प होते गये हैं, तैसे रूप होते गये, वास्तवते क्या है, जैसे जलविषे तरंगस्वरूपके प्रमादकारे अनेकभावको प्राप्त होते हैं, अपने संकल्प आपहीको बंधनरूप होते गये हैं, ताते संक- ल्प नानात्व कलना मिथ्या है । हे राजन् ! इस भावनाको त्यागिकार आत्मपकी शरणको प्राप्त हो, जो आत्मा अनंत है, कोऊ विश्वभान अपर प्रकारकी होती है, जैसे समुद्र सम है, तिसविपे कोऊ आवर्त उठते हैं, कोऊ बुद्बुदे उठते हैं, सो जलते भिन्न नहीं, तैसे आत्माविषे अनेक प्रकारकी विश्व फुरती है, सो आत्माते भिन्न कछु नहीं, आत्मस्वरूपहीहै ताते आत्माकी भावना करु, कहूँ ब्रह्म सत् संकल्प होकार फुरताहै, तहां जानता है, मैं ब्रह्म हौं, अरु शुद्धरूप हौं, सदा मुक्त हौं, मैं इस संसार-समुद्रके पारको प्राप्त भया हौं, अरु जहां चेतनताशक्ति है, तहां आपको जीता मानता हैं; अरु दुःखीभी जानताहै,सो जीवका लक्षण श्रवण करु अंतःकरणसाथ मिलिकरि भोगको वासनाकरणी अरु सदा विषयकी तृष्णा करनी, सो जीवात्मा कहिये, अरु जहाँ वासना क्षय हुई है, अरु शुद्ध आत्माविषे आत्मप्रत्यय है तहाँ जीवसंज्ञा नष्ट हो जातीहैं, केवल शुद्ध आत्मा प्रकाशता है ॥ हे राजन् ! जब चेतन अंतःकरणसाथ मिलि कार बहिर्मुख फुरता है, तब संसारी हुआ जरामरणकारकै दुःखीहोता हैं, जहां चेतनशक्ति अंतर्मुख होतीहै,तब जन्ममरणकी भावनाको त्यागि कार स्वरूपकी भावना करता है, सर्वदुःखकी निवृत्ति होतीहै,जब इसकी भावना स्वरूपकी ओर लगतीहै,तब दुःखकोऊ नहींरहता, जब स्वरूपका प्रमाद भया, तब दुःख पाता है, जब स्वरूपका ज्ञान हुआ, तब आनंद रूप मुक्त होता है । हे राजन् ! संसाररूपीकूपकी दिंड नहीं होना,जब टिंड रस्सीसाथ बंधता है, कबहूँ ऊर्वको जाताहै, कबहूँ अधको जाताहै