पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३३

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(९१४)
योगवासिष्ठ।

अशब्द पद सर्वव्यापी है, जैसे वटबीजविषे पत्र टास फूल फल पाते हैं. तैसे सर्वविषे एक अनुस्यूत सत्ता व्यापीहै, सोब्रह्मतत्त्व सर्वशक्त है, सर्व शक्तिका स्पंद है, अरु आकाशते भी शून्य है, जैसे सूर्यकांतविषे अग्नि होता है, जैसे दूधविषे घृत होता है, तैसे सब जगत‍्विषे ब्रह्म व्यापि रहा है, जैसे दधिके मथेविना धृत नहीं निकसता, तैसे विचारविना आत्मा नहीं भासता, जैसे अग्निते चिणगारे निकसतेहैं, अरु सूर्यते किरणैं निकसती हैं, तैसे यह जगत् आत्माका किंचनरूप है, जैसे घटके नाश हुए घटाकाश अविनाशी है, तैसे जगत‍्के अभावते भी आत्मा अविनाशी है॥ हे रामजी! जैसे चुंबक पत्थरकी सत्ताकरिकै जड़ लोह चेष्टा करता है, परंतु चुंबक सदा अकर्ताही है, तैसे आत्माकी सत्ता करिकै जगत् देहादिक चेष्टा करते हैं, चैतन्य होते हैं, परंतु आत्मा सदा कर्ता है, इस जगतका बीज चेतन आत्मसत्ता है, तिसविषे संवित् संवेदन आदिक शब्द भी कल्पनामात्र हैं, जैसे जलको कहिये बहुत सुंदर चंचल है, सो जलही जल है, तैसे संवेदन आदिक सब चेतनरूप हैं, जहां न किंचन है, न अकिंचन है, सो तेरा स्वरूप है॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणेऽविद्यानिराकरणवर्णनं नामाष्टमः सर्गः॥८॥



नवमः सर्गः ९.

अविद्याचिकित्सावर्णनम्।

वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी! स्थावर जंगम जेता कछु जगत तुझको भासता है, सो अधिभौतिकताको नहीं प्राप्त भया, सब चिदाकाशरूप है, तिसविषे कछु भाव अभावकी कल्पना नहीं, अरु जीवादिक भेद भी नहीं, हमको तौ भेदकल्पना कछु नहीं भासती जैसे जेवरीविषे सर्पका अभाव है, तैसे ब्रह्मविषे भेदकल्पनाका अभाव है॥ हे रामजी! आत्माके अज्ञान करिकै भेदकल्पना भासती है, आत्माके जानेते भेदकल्पना मिटि जाती है, सो सर्व संपदाका अंत है, अरु जब शुद्ध चेतनविषे चित्तका संबंध होता है, तब इसीका नाम अविद्या है, जो पुरुष