पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३२७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

(१२०८) योगवासिष्ठ । भय किसका करता हैं, अरु शोक किसका करताहे, हे राजन् ! न कोऊ जन्मता है, न कोङ मरता है, न सुख है, न दुःख है, ज्योंका त्यों आत्मा स्थित है, तिसविषे संवेदन विश्व कपी है, ताते संवेदन त्याग करु, किन मैं हौं, न यह है, जब तेरे ताई ऐसा निश्चय हृढ होवैगा, तब पाछे आत्माही शेष रहैगा, अरु अहंकार निवृत्त हो जावैगा, काहेते कि आत्माके अज्ञानते हुआ है, आत्मज्ञानते नग्न हो जाता है । हे राजन् ! जो वस्तु भ्रमकारकै सिद्ध होवै अरु सत् दृष्ट अवे, तिसको विचारिये, जो विचार कियेते रहै, तौ सत्य जानिये, अरु आत्मा जानिये अरु जो विचार कियेते नष्ट हो जावे, तिसको मिथ्या जानिये, जैसे हीरा भी श्वेत है, अरु बर्फका मणका भी येत होता है, एक समान दोनों भासते हैं, तिनकी परीक्षाके लिये सूर्यके सन्मुख दोनों राखिये जो धूपकार गलि जावै सो झूठा जानिये अरु ज्योंका त्यों रहै तिसको सत् जानिये, तैसे विचाररूपी सूर्यके सन्मुख करिये तो अहंकार बर्फकी नाईं नष्ट हो जाता है, काहेते कि अहंकार अनात्म अभिमानविषे होता है, सो तुच्छ है, सर्वव्यापी नहीं, अरु इंद्रियोंकी क्रिया अपनेविषे मानता है, जो परधर्म अपनेविषे कल्पता है, सो तुच्छ है, अरु आपको भिन्न जानता है, आपते अपर पदार्थ भिन्न जानता है ताते विचार कियेते बर्फके हीरेकी नाई मिथ्या होता है, अविचार सिद्ध है, जब विचार किया, तब नष्ट हो जाता है, अरु आत्मा सर्वेको साक्षी ज्योंका त्यों रहता है, अहंकारका भी अरु इंद्रियोंका भी साक्षी है, अरु सर्वव्यापी है ॥ हे राजन् ! जो सत् वस्तु है, तिसकी भावना करु, अरु सम्यकूदर्शी हों, सम्यकूदर्शीको दुःख कोऊ नहीं, जैसे जेवरी मार्गविषे पड़ी है, तिसको जेवरी जानिये तौ दुःख कोऊ नहीं, अरु जो सर्प जानिये तौ भयमान होता है, ताते सम्यक् होहु असम्यदर्शी मत होहु । हे राजन् ! जो कछु दृश्य पदार्थ हैं, सो सुखदायी नहीं दुःखदायी हैं, जबलग इनका संयोग है, तबलग सुख भासता है, जब वियोग हुआ, तब दुःखको प्राप्त करते हैं, ताते तू उदासीन होडु, किसी दृश्य पदार्थको सुखदायी न जाने, अरु दुःखदायी भी न जान, सुख अरु दुःख दोनों मिथ्या हैं इनविषे आस्था