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मलुई०अ०सर्वब्रह्मप्रतिपादनेवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. ( ११९९) हुआ है, सो सत् भी नहीं, अरु असद भी नहीं, जो आत्माते भिन्न कर देखिये, तौ मिथ्या है, ताते सत् नहीं, अरु आत्माविना दूसरा है। नहीं, सर्वात्मा है, ताते असत् भी नहीं, तू आत्माकी भावना करु, जो कछु पदार्थ भासते हैं सो आत्माते भिन्न न जान, सर्वात्माही है, जो आत्माविना अपर भावना है, तिसका त्याग करु ॥ हे राजन् ! जैसे जलविषे तरंग बुद्बुदे होते हैं, सो जलते इतर नहीं जलही ऐसे भासता है, तैसे जगत् जो दृष्ट आता है, सो आत्मा है, ऐसे भासता है, जैसे सूर्य अरु किरणोंविषे भेद कछु नहीं, तैसे आत्मा अरु जगविषे भेद नहीं, आत्माही जगतरूप है, अरु भिन्न भिन्न जो आकार भासते हैं, सो चित्तशक्तिकारकै हैं, इतर नहीं, आत्मसत्ता है, जैसे लोहा तप्त हुआ वस्त्रादिकको जलाता है, सो लोहेकी अपनी सत्ता नहीं, अग्निकी है, तैसे चेतनकी सत्ता जगतरूप होकार स्थित भई है, अरु आत्मा सदा केवलरूप हैं, जिसविषे प्रकाश अरु तम दोनों नहीं, न सत् है, न असत है, न कोऊ देश है, न काल है, न कोऊ पदार्थ है, केवल चेतन मात्र गुणातीत है, न कोऊ गुण है, न माया है, केवल शतरूप आत्मा है । हे राजन् ! न शास्त्रों कर पाता हैं, न गुरुके वचनकार पाता है; न तपकार पाता है, केवल अपने आपकर जाना जाता है, शास्त्रादिक लखायदेते हैं, परंतु इदं कार नहीं जनाते, जो द्रष्टा पुरुष अपने आपकार । जानता है, जैसे सूर्यकी ज्योति नेत्रविषे है, सोई सूर्यको देखती है, तैसे आत्माही आत्माको देखता है, अंतर्मुख होकार संकल्पते रहित हुआ अपने आपको देखता है, जब संकल्प बहिर्मुख होता है, तब वही दृढ़ होकरि स्थित होता है, बहुरि तिसकी भावना होती है, जब संकल्परूप जगत् दृढ़ताकार स्थित होता है, तब दुःखदायी होता है। हे राजन् अपर दुःखदायी तिसका कोऊ नहीं, अपनेही संकल्पकारकै असम्यक्दर्शी दुःखी होता है, अरु सम्यकुदर्शीको जगत् दृष्ट भी आता है, तौभी दुःखदायी नहीं होता जैसे जेवरीविषे सर्पकी भावना होती हैं, तब भयकोप्राप्त होता है, जब जेवरीके जाननेते सर्पभावना दूर भई तब भय भी जाता रहता है, वैसे जिस पुरुषको संसारकी भावना होती है, सो