पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३१२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

• राजाइक्ष्वाकुप्रत्यक्षोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. ( ११९३० । हैं, जैसे स्वर्णविषे भूषणकल्पना होती है, तैसे आत्माविषे मोहकारि दुःख सुख कल्पते हैं, आत्माविषे कल्पना कछु नहीं, शुद्ध आत्माविषेष मूढने सुखदुःखकी कल्पना करी है, अरु जो ज्ञानवान हैं, तिनको मन चित्त सुख दुःख सब आकाशरूप हैं, वह देहते रहित केवल चिदाकाशभावको प्राप्त होते हैं, जरामरणको नहीं प्राप्त होते, सब कार्यको करते हुए आते हैं, अरु अंतरते सदा अकतरूप हैं, जैसे जल अरु दर्पणविषे पर्वतका प्रतिबिंब पड़ता है, परंतु स्पर्श नहीं करता, तैसे ज्ञानवान्को क्रिया स्पर्श नहीं करती, शरीरके व्यवहारविषेभी वह सदा निर्मलभाव है । हे राजन् । आत्मा सदा स्थितरूप हैं, परंतु भ्रमकारकै चंचल भासता है, जैसे जलकी चंचलताकारकै पर्वतका प्रतिबिंब भी चंचल होता है, तैसे देहादिककारि आत्मा चलता भासता है, सो आत्मा नित्य शुद्ध अपने आपविषे स्थित है, जैसे घटके नाश हुए घटत्वनाश नहीं होता, तैसे देहके नाश हुए आत्माका नाश नहीं होता, जैसे शुद्ध मणिविषे नानाप्रकारके प्रतिबिंब होते हैं, तिनकार रंजित नहीं होती, तैसे आत्माविषे मन इंद्रियाँ देह दृष्ट आते हैं, सो स्पर्श नहीं करते, जैसे मिष्ट पदार्थविषे मिठाई एकही व्यापी है, तैसे सब पदार्थविषे एक आत्मसत्ता व्यापी है । हे राजन्! आत्मा सदा अचलरूप है, परंतु अज्ञानकारकै चलरूप भासता है, जैसे दौडतेहुए बालकको सूर्य दौडता भासता है, तैसे अत्मा देहके संगते अज्ञानकार विकारवान भासता है, जैसे प्रतिबिंबका विकार आदर्शको नहीं स्पर्श करता, तैसे देहका विकार अत्माको स्पर्श नहीं करता, जैसे अग्निविषे स्वर्ण डारिये, तब मैल दुग्ध हो जाता है, स्वर्णका नाश नहीं होता, तैसे देहके नाश हुए आत्माका नाश नहीं होता, सो आत्मा नित्य शुद्ध अवाक् अचिंत्यरूप है । हे राजन् ! चितवणविषे नहीं आता परंतु चेतन वृत्तिकारि देखता है, जैसे राहु अदृष्ट है, परंतु चंद्रमाके संयोगकार दृष्ट आता है, तैसे आत्मा अदृष्ट है, परंतु चेतनवृत्तिकारि जानाजाता है, जैसे शुद्ध दर्पणविषे प्रतिबिंब होता है, तैसे निर्मल बुद्धिविषे आत्मा साक्षात् भासता है, सो संकल्पते रहित अपने आपविषे स्थित है, जब बुद्धि निर्मल होती है, तब अपने आपविषे तिसको पाती है। हे राजन् ! शास्त्रोंकार