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योगवासिष्ठ।

रूपी सर्पिणी है, सो वल्ली अन्यथा नष्ट नहीं होती, जब विचाररूपी घुण इसको लगै, तब नष्ट हो जाती है॥ हे रामजी! जेता कछु प्रपंच तुझको भासताहै, सो अविद्यारूप है, कहूं अविद्या जलरूप हुई है, कहूँ पहाड़, कहूं नाग, कहूं देवता, कहूं दैत्य, कहूं पृथ्वी हुई है, कहूं चंद्रमा, कहूं सूर्य, कहूं तारे, कहूं तम, कहूं प्रकाश, कहूं तेज, तमते रहित, कहूं पाप, कहूं पुण्य, कहूं स्थावर मूढरूप, कहूं अज्ञानकरि दीन होती है. कहूँ ज्ञानकार आपही क्षीण हो जाती है, कहूं तप दान आदिककरि क्षीण होती है, पापादिककरि वृद्ध होती है, कहूँ सूर्यरूप होकरि प्रकाशती है, कहूं स्थानरूप होती है, कहूँ नरकविषे लीन है, कहूँ स्वर्गनिवासी है, कहूँ देवता होती है, कहूँ कृमि होती है, कहूँ विष्णुरूप होकर स्थित भई है, कहूँ ब्रह्मा होकार स्थित भई है, कहूँ रुद्र है, कहूँ अग्निरूप कहूँ पृथ्वीरूप भई है॥ कहूँ आकाशके काल भूत भविष्य वर्तमान भई है॥ हे रामजी! जो कछु देखने में आता है, सो सब इसकी महिमा है, ईश्वरते आदि तृणपर्यंत सब अविद्यारूप है, जो इस दृश्यजालते अतीत है, तिसको आत्मलाभ जान॥ इति श्रीयोगवासिष्टे निर्वाणप्रकरणे अविद्यालतावर्णनं नाम सप्तमः सर्गः॥७॥



अष्टमः सर्गः ८.

अविद्यानिराकरणम्।

राम उवाच॥ हे ब्राह्मण! हरि विष्णु अरु हर आदिक तौ शुद्ध आकार आकाश जाति हैं, इनको अविद्या तुम कैसे कहते हौ, यह सुनकर मुझको संशय उत्पन्न हुआ है॥ वसिष्ट उवाच॥ हे रामजी! प्रथम अविद्या अरु तत्त्व श्रवण कर,कि किसको कहतेहैं, जो अविद्यमान होवै, अरु विद्यमान भासै, सो अविद्या है, अरु जो सदा विद्यमानहै, तिसकोतत्त्व कहते हैं॥ हे रामजी! शुद्ध संवित‍्कलनाते रहित चिन्मात्र आत्मसत्ता है, सो तत्त्व है, तिसविषे जो अहं उल्लेखकार संवेदन कलना पूर्णरूप फुरी है, सो चिन्मात्र संवित्का आभास है, सोई फुरिकरि सूक्ष्म स्थूल