पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३०९

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(११९०) , योगवासिष्ठ । होता है, तैसे वासनारूपी पोट है, अज्ञानरूपी धूप है, तिसकार तुःखी होता है, ज्ञानरूपी बलकार वासनारूपी पोटको डारिकै सुखसों स्थित होता है । हे रामजी ! 'भोगभावना तिस पुरुषकी नष्ट हो जाती है बहुर दुख नहीं देती, जैसे गरुडको देखकर सर्प भागता है, बहुरे निकट नहीं आता तैसे ज्ञानरूपी गरुडको देखिकर भोगरूपी सर्प भागते हैं, बहुरि निकट नहीं आते, आत्मपदको पायकार शातिरूपी दीपकवत् प्रकाशवान होते हैं, भाव अभाव पदार्थ तिसको स्पर्श नहीं करते, संसारभ्रम निवृत्त हो जाता है, सो ज्ञान समुझने मात्र, कछु यत्न नहीं. संतपास जायकार प्रश्न करना, मैं कौन हौं, जगत् क्या हैं, परमात्मा क्या है, अरु भोग क्या हैं, इनको तरिकरि कैसे परमपदको प्राप्त होवै, बहुरि जो ज्ञानवान् उपदेश करै, तिसके अभ्यासकार आत्मपदको प्राप्त होवेंगे अन्यथा न होवें ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे संतलक्षणमाहात्म्यवर्णनं नाम चतुर्नवतितमः सर्गः ॥ ९४ ॥ पंचनवतितमः सर्गः ९५. इक्ष्वाकुप्रत्यक्षोपदेशवर्णनम् । ' वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । जिसप्रकार तुम्हारा बडा इक्ष्वाकु नामक राजा जीवन्मुक्त होकार विचरा है, तैसे तुम भी विचरौ, तुम भी तिस कुलते उपजे हौ । हे रामजी । इक्ष्वाकुराजा सूर्यवंशी होत भया है, सो मनुका पुत्र अरु सूर्यका पौत्र सब राजाते श्रेष्ठ था, जैसे पितरोंका राजा धर्म है, अरु बर्फकी नाई तिसका शीतल स्वभाव था, जैसे सूर्यको देखिकार मणिते तेज प्रगट होता है, तैसे तिसको देखिकार शत्रु तपायमान, हो, ऐसा परंतप था, साधु अरु मित्र प्रजाको रमणीय भासै, तिसको देखिकार सब शांतिवान् होवे, जैसे चंद्रमाको देखिकार चंद्रमुखी कमल प्रसन्न होते हैं तैसे उसको देखकर प्रसन्न होने, अरु पाप रूपी वृक्षोंके काटनेहारा कुहाडा अरु मित्रको सुखदायक जैसे मोरोंका मेघु सुखदायक है, अरु सुंदर ऐसा- जिसको देखिकार लक्ष्मी स्थित हो