पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३०७

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(११८८) योगवासिष्ठ । सिद्धता होती है, ताते चारों अंतःकरण सिद्ध होते हैं, तुम कैसे कहते हौ, जो अहंकार नष्ट हो जाता हैं, अरु सर्व चेष्टा होती हैं । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी! आत्मस्वरूपविषे अहंकार आदिक अंतःकरण अरु इंद्रियां कल्पित हैं; वास्तव कछु नही, अरु शास्ता शास्त्र उपदेश भी कल्पना हैं, आत्मा केवल आत्मत्वमात्र है, तिसविषे संवेदन करिकै अहंकारादिक दृश्य फुरे हैं, तिसके निवृत्त करणेको प्रवर्तते हैं, जैसे जेवरीविषे सर्प भासता है, तब भयकरि दुःख पाता है, जब किसीने कहा कि, यह जेवरी है, तू भय मत कर, इसको भली प्रकार देख, यह सर्प नहीं; तिसके उपदेश कर वह भली प्रकार देखता है, तब भय शोक तिसका निवृत्त हो जाता है, जो भ्रमकारकै उसको सर्पभान हुआ था, सो भी मिथ्या है, अरु उसको उपदेश करना जेवरीका सो भी मिथ्या है. काहेते कि, जेवरी तौ आगे सिद्ध है। उपदेशकारि सिद्ध नहीं होती, तैसे जेवरीकी नाईं आत्मा है, तिसका निवृत्त जो चेतन लक्षण तिसको अहंभाव है; तिस अहंकारके निवृत्त करनेको शास्त्र हुए हैं, जो आत्मारूपी जेवरीके प्रमाकरि अहंकाररूपी सर्प फुरा है, तिसके निवृत्त करनेको शास्त्रके उपदेश हुए हैं, आत्माको जताय देते हैं, जब भली प्रकार जेवरीकी नाईं आत्माको जाना, तब सर्पकी नाईं जो पारिच्छिन्न अहंकार है, सो नष्ट हो जाता है, जैसे नेत्रविषे मैल होता है, अरु अंजनके पावनेकर नष्ट हो जाता है, तब ज्योंका त्यों निर्मल नेत्र होते हैं तैसे अज्ञानरूपी जो भैल है, सो गुरु शाखके उपदेशरूपी शुरमेकर नष्ट हो जाता हैं, वास्तव न कोऊ अहंकार है, न शास्त्र है, काहेते जो आत्मा सर्वदाकाल उदयरूप है, परंतु तौ भीरुशास्त्रकरि जाना जाता है । हे रामजी ! ज्ञानवान्के साथ चारों अंतःकरण अरु इंद्रियां भी दृष्ट आते हैं, सो तिनविषे सत्यता नहीं होती, जैसे भूना बीज दृष्ट आता है, परंतु उगनेकी सत्यता नहीं रखता, जैसे जला वस्त्र होता है, सो देखनेमात्र है, सत्यता उसविषे कछुनहीं तैसे ज्ञानवादको अभिलाषरूप अहंकार नहीं होता, तिसकार कष्ठ नहीं पाता. जैसे सूर्यकी किरणोंकार मरुस्थलविषे. जलाभास होता है, तिसको देखिकर जलपान करणेनिमित्त मृग दौडत