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अविद्यालतावर्णन–निर्वाणप्रकरण ६.

उपजा, तबलग अज्ञान रहता है, जब आत्मविचार उपजताहै, तब अज्ञानरूपी रात्रि निवृत्त हो जाती है, केवल ब्रह्मपद भासता है॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे अज्ञानमाहात्म्यवर्णनं नाम षष्ठः सर्गः॥६॥



सप्तमः सर्गः ७.

अविद्यालतोवर्णनम्।

वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी! यह संसाररूपी यौवन है, सो चेतनरूपी पर्वतके शृंगऊपर स्थित है, तिसविषे अविद्यारूपी वल्ली बढी है, अरु विकासको प्राप्त भईहै, अरु सुख दुःख भाव अभाव अज्ञान इसके पत्र फूल फल हैं, जहां अविद्या सुखरूप होकरि स्थित होती हैं, तहां ऊंचे सुखको भोगावती है, तिसके सत्ताभावको प्राप्त होती है, अरु सुखरूप होकरि स्थित होतीहै, तहां दुःखरूप भासती है, सोई सुखदुःख इसके फल गुच्छे हैं, दिनरूपी फूल हैं, अरु रात्रिरूपी भँवरे हैं, जन्मरूपी अंकुर है, अरु भोगरूपी रसकरि पूर्ण है, जब विचाररूपी घुण अविद्यारूपी वृक्षको खाने लगताहै, तब नष्ट हो जाती है, जबलग विचाररूपी घुण नहीं लगा, तबलग दिन दिन बढ़ती जाती हैं, अरु दृढ़ हो जाती है॥ हे रामजी! अविद्यारूपी वल्लीहै, अरु मूल इसका संवित् फुरणाहै, तिसकार पसरीहै, तारागण इसके किसी ओर फूल हैं, चंद्रमा सूर्य इसका प्रकाश है, अरु दुष्कृत कर्मरूपी नरकस्थान कंटक हैं, अरु शुभ कर्मरूपी स्वर्ग इसके फूल प्रकाशैं हैं, अरु सुखदुःखरूपी फल लगते हैं, जीवरूपी उसके पत्र, अरु कालरूपी वायुकरि हलतेहैं, कई जीर्ण होकरि गिर पड़ते हैं, पृथ्वीरूपी त्वचा है, पर्वत घोडे हैं, मरणरूपी इसविषे छिद्र हैं, जन्मरूपी अंकुर हैं, मोहरूपी कलियां हैं, महासुंदर गौर अंगहै, तिसकरि जीव मोहित होते हैं, जैसे स्त्रीको देखिकरि मोहित होते हैं, अरु सप्त समुद्रके जलकरि सिंचती हैं, तिसकरि पुष्ट होती है, तिस वल्लीविषे एक विषकी भरी सर्पिणी रहती है, जो कोऊ उसके निकट जाता है तिसको काटती है, तब वह मूर्च्छाकरि गिर पड़ता है, संसाररूपी मूर्च्छाको देनेहारी तृष्णा-