पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२९९

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(११८० ) योगवासिष्ठ । मनही संसार है, मनही ब्रह्मा है, अरु मनही कीट है, मनही सुमेरु है, मनही तृण है, मनही सर्व विश्वरूप होकार स्थित भया है, सो मन कैसा है, जो आत्माते इतर कछु नहीं, जैसे फलहीविषे संपूर्ण वृक्ष हैं, तैसे मन आत्मास्वरूप है, आत्माते इतर मन कछु वस्तु नहीं,ऐसे जानिकारमस्वरूप होवैगा, यह जो संज्ञा है, बंध अरु मोक्ष, तिसका त्याग करु, न बंधकी वांछा करु, न मोक्षकी इच्छा करु,इसकल्पनाते रहितहो,अरु ऐसे न होवै, जो मुक्तहौं,अरु यह अपर बंध हैं केवल सत्तासमान आत्मपद विषे स्थित होहु,यही भावना कर, जो तेरे सर्वदुःख नष्ट हो जावें, ऐसा जो पुरुप है तिसका चित्तभावनहीं रहता, सर्व आत्मा तिसको भासताहैं जैसे जिस पुरुषने सूर्यको जाना है, तिसको किरणें भी सूर्यही दृष्ट आती हैं, तैसे जिसको आत्माका साक्षात्कार हुआ है, तिसकोजगत् भीआमस्वरूप भासता है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणिप्रकरणे परमार्थयोगोपदेशवर्णनं नाम एकनवतितमः सर्गः ॥ ९१ ॥ द्विनवतितमः सर्गः ९२. = = महाकर्नाद्युपदेशवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! महाकत हो, अरु महाभोक्ता अरु त्यागी होडु, सर्व शंकाको त्यागिकार निरंतर धैर्य धारिकरि स्थित हो राम उवाच ॥ हे भगवन् । महाकर्ता क्या कहिये, महाभोक्ता अरु महात्यागी क्या कहिये, सो कृपा कारकै कहौ ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हेरामजी। तेरे प्रश्नऊपर एक आख्यान है सो श्रवण करु, एकसमय सुमेरुपर्वतकी उत्तर दिशाके शिखरते सदाशिवजी आय प्राप्तभया,सो कैसाहै सदाशिव चंद्रमाको मस्तकविषे धारे है, अरु गुणसंयुक्तअरुगौरी बामअंगविषेधारे है, सुमेरुपर्वतके शिखरपर आनि स्थित भया,तब श्रृंगीगण जो है सदाशिवका; तिसने हाथ जोडकारे प्रश्न किया, कैसा है शृंगीगण, महातेजवान् अरु आत्मजिज्ञासा जिसको उपजी है, तिसने प्रश्न किया कि,