पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२७०

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शिखरध्वजस्त्रीप्राप्तिवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. ( ११५१ ) का संग करना अरु सच्छास्त्रका विचार करना जब दृढ भावना करिये तब केते कालते स्वरूपका साक्षात्कार होता है. कालकी अपेक्षा दृढ विचारके निमित्त कही है, जब दृढ विचार होता है, तब साक्षात्कार होताहै, जब स्वरूपका साक्षात्कार हुआ, तब स्पंदै निस्पंदविषे एक समान होता है । हे राजन् ! जिसके समीप माखी होवै, सो माखीके निमित्त पर्वत क्यों खोजे अरु दौड़े, तैसे तेरे घरविर्षे ब्रह्मवेत्ता चूडाला थी, तिसका त्यागकर तैंने वनविषे आय तपका आरंभ किया, ताते बड़ा कष्ठ पाया परंतु अब तू जागा है, अरु दुःख तेरे नष्ट भये हैं, अब तू शांतिपदको प्राप्त भया है, जैसे जेवरीके न जाननेकार सर्प भासता है, अरु भलीकार जाननेते जेवरीही भासती है, तैसे जिसने भली प्रकार निस्पंद होकार अपना आप देखा है, तिसको फुरणेविषे भी आत्माही भासता है। जब मनकी चपलता मिटती है, तब तुरीयातीत पदको प्राप्त होता हैं, जिस पदको वाणी विषयकारि नहीं सकती॥ हे राजन्! तू भी तिसी पदको प्राप्त भया है, जो मन अरु वाणीते रहित है, अरु तुरीयातीत पद है, जहाँ क्षोभ कोऊ नहीं शांतिपद है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे शिखरध्वजबोधवर्णनं नाम एकाशीतितमः सर्गः ॥ ८१ ॥ हुयशीतितमः सर्गः ८२. शिखरध्वजस्त्रीप्राप्तिवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! जब राजाको कुम्भमुनिने ऐसे उपदेश किया, तिसके उपरांत कहा ॥ हे राजन् ! अब हम स्वर्गको ब्रह्माजीके पास जाते हैं, वहाँ देवतोंकी संभाविषे नारदमुनि आया है, जो मेरे ताई न देखेगा, तो क्रोध करेगा ॥ हे राजन् ! जो कल्याणकृत पुरुष हैं, सो बड़ेकी प्रसन्नता लेते हैं, ताते में जाता हौं अरु जो तेरे तांई उपदेश किया है, तिसको भली प्रकार विचारना, अरु सर्व शास्त्रोंका सार यही हैं कि, संपूर्ण वासनाका त्याग करना, किसीविषे चित्तको बँधमान नहीं करना, मेरे आवनेपर्यंत स्वरूपविषे स्थित रहना, अपर किसी