पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२६९

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( ११५० ) यौगवासिष्ठ । स्थित होना है जिस मेघते बूंद उत्पन्न होती है, तिसविषे स्थित होइये ॥ हे राजन् । जैसे स्त्री होवे, अझ भतते को पदार्थ चाहे, अरु आप न कहे, तैसे तपादिक क्रियाकार क्या सिद्ध होता है, जो तिनकार आत्मपदकी इच्छा करे, तौ इनकार प्राप्त नहीं होता, अपने आपकार पाता है॥ हे राजन् आत्मा तेरा अपना आप है, तिसकारे सर्व सिद्ध होता है, जो वस्तु पाछे त्याग करणी होवे, तिसको ज्ञानवान प्रथमही अंगीकार नहीं करता अरु जेता कछु तपादिक धंधा है, तिनको चित्तकरि क्या रचता हैं, अपने आपको देख जो अनुभवरूप है, अरु सर्वदा निरंतर अपने आपविषे स्थित है, जब तू अपने आपकार आपको देखेगा, तब तपादिक क्रियाको दूर करिकै शोभा पावैगा, जैसे बादलके दूर भये चंद्रमा प्रकाशवान् शोभा पाता है, तैसे तू भी भोगको चपलताको त्यागिकार शोभा पावैगा, जब इंद्रियोंको जीतेगा, अरु किसी पदार्थविषे आसक्त न होवैगा, अरु सर्व वासनाका त्याग करेगा, तब ज्ञानवान होवैगा, अरु जिसने सर्व वासनाका त्याग किया है, तिसको विष्णु जानना; जो सब राज्यका स्वामी है, जिसने मन जीता है। सो चेष्टाविषे भी ज्योंका त्यों रहता है, अरु समाधिविषे भी ज्योंका त्यों हैं, जैसे पवन चलने अरु ठहरनेविषे तुल्य है, तैसे ज्ञानवान्को कहूँ खेद नहीं होता ॥ राजोवाच ॥ हे सर्व संशयके छेदनेहारे स्पंद अरु निस्पंदविषे ज्ञानी ज्योंका त्यौं कैसे रहता है, सो कृपाकार कहौ ॥ कुंभ उवाच । हे राजन् । चेतन आकाश है सो आकाशते भी निर्मल है, जब तिसका साक्षात्कार हुआ,तब जहाँ देखें तहां चेतनहो भाता हैं, जैसे समुद्रके जाननेते तरंग बुद्बुदे सर्व जलही भासता है, तैसे चित्तविना अत्माके देखे हुए ऊरणेविषे भी आत्माही दृष्टि आता है, अरु जिसने आत्माको नहीं जाना, तिसको नानाप्रकारका जगतही भासता है, जैसे जलके जानने विना तरंग बुद्बुदे भिन्न भिन्न दृष्टि आते हैं, अरु जलकेजाननेते तरंग भी. जलमय भासते हैं ॥ हे राजन् ! सम्यकदर्शीको जगत् आत्मस्वरूप है, असम्यकदर्शीको जगत है, ताते तू सम्यक्रदर्शी होकर देख कि जगतभी आत्मरूप है, अरु सम्यक्दर्शन जैसे प्राप्त होता है, सो श्रवण करु; संत