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चित्तत्यागवर्णन-निर्वाणकरण ६. (११२७) सुखी हैं, अरु समुद्रकी नाईं स्थित है, उसको दुःख कोई नहीं, ताते तू चित्तका त्याग करु, जो राज्यदोष मिटि जावे, अरु इस चित्तके एतेनाम हैं, चित्त मन अहंकार जीव अरु माया, यह सर्व चित्तहीके नाम हैं। हे राजन् ! त्यागने अरु अपरकी भिक्षा लेनेते तो चित्त वश नहीं होता चित्त तवहीं वश होता है, जब पुरुष निर्वासनिक होता है, जबलग चित्त फुरता है, तबलग सर्व त्याग नहीं होता, जब यही ऊरना निवृत्त होता है, तब चित्तका त्याग होताहै, अरु चित्तको त्यागिकारेभी त्यागके अभिमानते रहित होना, ऐसा शून्य पाछे जब तू रहैगा, तब सर्वात्मा होवैगा, जब चित्तको त्यागैगा, तब तिसपदको प्राप्त होवैगा कि, जेते ऐश्वर्यसुख हैं, तिनका अआश्रय है, अरु जेते दुःख हैं, तिनका नाश करनेहारा है, अरु जिसके जानेते किसी पदार्थकी इच्छा न रहैगी, काहेते न रहेगी कि, सर्व आनंदके धारनेहारा तेरा स्वरूप है, बहुरि इच्छा किसकी रहे, जैसे आकाशके आश्रय देवलोकते आदि सर्व विश्व रहता है, अरु आकाशकी इच्छा कछु नहीं, जो इच्छा नहीं करता तो भी सर्व आकाशहीविषे है, अब सर्वका धारणेद्दाराहे ॥ हे राजन् ! जब तू भी इच्छा किसीकी न करेगा, तब निर्वासनिक होकर अपने स्वरूपविषे स्थित होवैगा अरु जानैगा कि,सर्वका आत्मा मैंही हौं, सर्वको धारिरहा हौं अरु भूत भविष्य वर्तमान तीनों काल भी मेरे आश्रय हैं जैसे समुद्रके आश्रय तरंग हैं, तैसे मेरे आश्रय काल है. अरु चित्तका संबंध तेरे ताईं प्रमाकरिकै हैं, अरु प्रमाद् यही है कि, चिन्मात्र पदविषे चित्त होकर फुरता हैं अरु चित्त कैसा है, कि जड भी है, अरु चेतन भी है, इसका नाम चिजड ग्रंथि है जब यह ग्रंथि खुल जावेगी, तब अपने आपको वासुदेवरूप जानेगा, जब निवासनिक होवेगा,तब संसाररूपीवृक्ष नष्ट हो जावैगा, जैसे बीजविषे वृक्ष होता है तैसे चित्तविषे संसार हैं, जैसे बीजके जलनेते वृक्ष भीजलि जाताहै, तैसे वासनाके दुग्ध हुएते संसार भी दग्ध होताहै ॥ हे राजा ! जैसे एक डब्बेविचे रत्न होते हैं, तौ रत्नोंके नाश हुए डब्बा नाश नहीं होता अरुडब्बेके नष्ट हुए रत्न नष्ट होतेहैं,सो डब्बा क्याहै, अरु रत्न क्या हैं,श्रवण करुडब्बा चित्त है,अरु रत्न देह है,ताते चित्त नष्ट होनेका उपाय करहु, जब चित्त