पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२३६

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हस्तिवृत्तान्तवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१११७) भया,बहुरि हस्तीके पाछे चला,अरु हस्तीको खोजि लिया जैसे चंद्रमाको राहु खोजि लेता है, तैसे वनविषे हस्तीको खोजि लिया, देखाकी वृक्षके तले सोया पडा है, जैसे संग्रामको सूरमा जीतिकरि निश्चित होता है, तैसे हस्तिको निश्चित सोया पडा देखा; जो संकरको तोडिकार आय सोयाहै, तब महावतने विचार किया कि, इसको वश करिये अरु यही उपाय करत भया, कि बेलेके चउफेर खाईंकरी, जैसे ब्रह्माने विश्वको उत्पन्न कारकै पृथ्वीके चउफेर समुद्र चक्र किया है, तैसे बेलेके चउफेर खाईंका चक्रकार लिया, अरु खाइँके ऊपर कछु तृण घास पाया, जैसे शरत्कालके आकाशविषे बादल देखने मात्र होता है, तैसे तृण घास खाई ऊपर देखने मात्र दृष्ट आवै, अरु बीच खाईं करी, तब एक समय हस्ती उठिकार चला, अरु खाइँके बीच गिरपड़ा, जब गिरपड़ा तब महावत हस्तीकेनिकट आया, अरु संकरों साथ बांधा, जैसे दैत्य छल कारकै देवताओंको वश करते हैं, जैसे अगस्त्यमुनिने छलकारकै मंदराचलको रोंकि छोड़ा था, तैसे हस्तीको महावतने वश किया, अरु हस्ती गिरपड़ा, जैसे सूखे समुद्रविषे पर्वत गिरपडता है, तैसे खाईंविषे हस्ती गिरपडा, अरु दुःखको प्राप्त हुआ, जो अबतक वनविषे पड़ा दुःख पाता है. काहेते कि,भविव्यका विचार न किया, अज्ञानीको भविष्यका विचार नहीं, इसीते दुःख पाता है, वर्तमानकालविषे विचार नहीं करता, कि आगे क्या होना हैं, इसीते अज्ञानी हस्ती दुःखको प्राप्त भया । हे राजन् ! यह जो आख्यान तेरे ताईं मैंने श्रवण कराये हैं, एक मणिका, एक हस्तीका, तिनकोजबतू समझेगा, तब आगे मैं उपदेश कौंगा॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे हत्याख्यानवर्णनं नाम सप्ततितमः सर्गः ॥ ७० ॥ एकसप्ततितमः सर्गः ७१, हस्तिवृत्तान्तवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । जब देवपुत्रने ऐसे कहा तब राजा कहत भया ॥ हे देवपुत्र! यह दो आख्यान तुमने कहे हैं सो तुम जानते हो