पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२३२

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चिंतामणिवृत्तांतवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. ( १११३) तब पितामहने कहा, ज्ञानके पायेते दुःख कोई नहीं रहता, सर्व आनंदुका आनंद ज्ञान हैं, तिसते आगे आनंद कोई नहीं अरु अज्ञानीको कर्म श्रेष्ठ हैं, क्योंकि जो पापकर्म करेंगे, तो नरक को प्राप्त होगे, ताते तप दान करनेते स्वरूपकी प्राप्ति नहीं होती, तौ भी अज्ञानीको श्रेष्ठ है, कि नरक भोगनेते स्वर्ग विशेष है, जैसे कंबलते पटका वस्त्र श्रेष्ठ है, परंतु पटका न पाइये तब कंबल भी भला हैं, तैसे ज्ञानपटकी नाईं हैं, अरु तप कर्म कंबलकी नाईं है, कर्मकार शांति नहीं प्राप्त होती ॥ ताते हे राजन् ! तू काहेको इस टोयेविषे पडा है, आगे राज्यवासी था, अब वनवासी भया, ताते यह क्या किया है, जो अज्ञानविष पड रहा है, मूर्खताके वश पडा है, जबलग तेरे ताई क्रियामान होता हैं कि, मैं यह करौं, तबलग प्रमाद है, इसकरि दुःख निवृत्त न होवैगे ताते निर्वासनिक होकर अपने स्वरूपविषे जाग, निवसनिक होनाही मुक्ति है, अरु वासनासहित ही, बंधन, पुरुषप्रयत्न यही हैं, कि निर्वासनिक होना, जबलग वासना सहित है तबलग अज्ञानी है, जब निर्वासनिक होवे, तब ज्ञेयरूप है, निर्वासनिक कहिथे सदा ज्ञेयकी भावना करनी, अरु ज्ञेय कहिये आत्मस्वरूप तिसको जानकार बहुरि इच्छा कोई न रहै, केवल चिन्मात्र पदविषे स्थित होना, इसीका नाम ज्ञेय है, जो जानने योग्य है, सो जाना, तब अपर बासना नहीं रहती, केवल स्वच्छ आपही होता है । हे राजन् ! तुझे अपने स्वरूपको जानना था, तू अपर जंजालविषे किसनिमित्त पडा है, आत्मज्ञान विना अपर अनेक यत्न करै, तौ शांति न प्राप्त होगी, जैसे पवनते रहित वृक्ष शतरूप होता है, जब पवन होता है, तब क्षोभको प्राप्त होता हैं, तैसेजब वासना निवृत्त होवैगी, तब शांत पद प्राप्त होवैगा, अरु क्षोभकोई न रहैगाजब ऐसे देवपुत्रने कहा, तब राजा कहत भया । हे भगवन् ! तुम मेरे पिता हौ, अरु तुमही गुरु हो, अरु तुमहीं कृतार्थ करनेहारे हौ; मैं वासना कारिकै बडा दुःख पाया है, जैसे किसी वृक्षके पत्र टास फूल फल सूख जावें, अरु एकका द्वंद्र रसिजावे, तैसे ज्ञानविना मैं भी हूँठसा हो रहा हौं, तोते कृपाकार मेरे ताईं शतिको प्राप्त करौ; तब देवपुत्रने कहा ॥ हे।