पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२०८

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चूडालाप्रबोधवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६, (१०८९) फुरणा कोई नहीं, इसीते शतिरूप हौं, जैसे क्षीरसमुद्र मंदराचल पर्व- तते रहित शतरूप हैं, तैसे चित्तते रहित अचल हौं, अरु अद्वैत हौं, कदाचित्, स्वरूपते परिणामको नहीं प्राप्त भया. ऐसा जो तन्मात्र पद है, तिसकी ब्रह्मवेत्ताने संज्ञा कही है कि ब्रह्म है, चेतन है, अरु पर- मात्मा है, इत्यादिक नाम आचार्यने रक्खे हैं, अरु यह आत्माही मन बुद्धि आदिक अरु दृश्य संसाररूप होकार पसरा है, अरु स्वरूपते अच्युत है, गिरा कदाचित् नहीं, अरु फुरणे करिकै आकार भासते हैं, तो भी आत्माते इतर कछु नहीं, जैसे बड़ा पर्वत होता है, तिसके पत्थर वटे होते हैं, तो भी पर्वतते इतर कछु नहीं, तैसे यह दृश्य आत्माते इतर कछु नहीं, अरु यह आकार कैसे हैं, जैसे गंधर्वनगर नानाआकार हो भासता है, तैसे यह संसार है, ज्ञानवान्को एक रस है, अरु अज्ञा- नीको भेदभावना है, जैसे बालक मृत्तिकाके खिलौने कल्पता है, हस्ती घोड़ा राजा प्रजाते आदि लेकरि नाम रखता है, अरु जिसको मृत्ति- काका ज्ञान है, तिसको मृत्तिकाही भासती है, इतर कछु नहीं भासता, तैसे अज्ञानकरिकै नाना रंग भासते हैं, अब मैं जाना है, एक रस हौं । हे रामजी! इसप्रकार चूडाला आपको जानती भई, कि मैं सन्मात्र हौं, अरु अच्छेद हौं, अदाह हौं, स्वच्छ हौं, अरु अक्षर हौं, निर्मल हौं, मेरेविषे अहं त्वं एक अरु द्वैतशब्द कोई नहीं, अरु जन्म मृत्यु भी कोई नहीं, यह संसार चित्तकार भासता है, अरु आत्मा स्वरूप है, देवता यक्ष अरु राक्षस स्थावर जंगम आदिक सर्व आत्मरूप हैं, जैसे तरंग बुदबुदा समुद्रसों भिन्न कछु नहीं, तैसे आत्माते भिन्न कछु वस्तु नहीं, दृश्य द्रष्टा दर्शन यह भी आत्माकी सत्ताकार चेतन हैं, इनको आपते सत्ता कछु नहीं, अरु मेरेविषे अहंका उत्थान कदाचित् नहीं, अपने आपविषे स्थित हौं, अब इसी पदको आश्रय कारकै चिरकाल इस संसारविषे विचरौंगी ॥ इति श्रीयोगवासिष्टे निर्वाणप्रकरणे चूडालाप्रबोधो नाम सप्तषष्टितमः सर्गः ॥ ६७ ॥