पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२०६

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चुडालाप्रबोधवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६: (१०८७) शीघ्रही जानि लेवे, अरु राजाको शिखावै, इसीप्रकार बहुत चेष्टा करै अरु विचारै ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे शिखरध्वजचूडालाप्रा- प्तिनम षट्षष्टितमः सर्गः ॥ ६६ ॥ सप्तषष्टितमः सर्गः ६७. चुडालाप्रबोधवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! इसीप्रकार राजा अरु रानीने अनंत भोग भोगे, जैसे छिद्रकार कुंभते शनैः शनैः जल निकसता है तैसे शनैः शनैः यौवनके गये वृद्ध अवस्था आय प्राप्त भई, तब राजा अरु रानीको वैराग्यका कणका आनि उत्पन्न भयो, तब वैराग्य कारकै यह विचारणे लगे कि, यह संसार मिथ्या अरु विनाशी है, एक जैसा नहीं रहता अरु यह विषयभोग भी मिथ्या है, जो एता काल हम भोगते रहे, तब कृष्णा पूर्ण न भई, वर्धती गई ॥ हे रामजी ! इसप्रकार राजा अरु रानी वैराग्य- करिकै विचारत भये कि, यह भोग मिथ्या है, अरु हमारी यौवन अवस्था भी व्यतीत हो गई है, जैसे बिजलीका चमत्कार क्षणमात्र होकर बीति जाता है, जैसे यौवन व्यतीत हो गया, अरु मृत्यु निकट आया, जैसे नदीको वेग तलेको चला जाता है, तैसे आयुर्बल व्यतीत हो जाती है। जैसे हाथके ऊपर जल पायावहिर जाता है, तैसे यौवन अवस्था निवृत्त हो गई है, अरु यह शरीर कैसा है, जैसे जलविषे तरंग बुबुदे उपजिकार लीन हो जाते हैं, तैसेही शरीर क्षणभंगुर है, अरु जहां चित्त जाता है, तहां दुःख भी इसके साथ चले जाते हैं, निवृत्त नहीं होते, जैसे मौसके टुकड़े पाछे ईल पक्षी चला जाता है, तैसे जहां अज्ञान है, तहाँ दुःख भी पाछे जाते हैं, अरु यह शरीर भी निवृत्त हो जाता है, जैसे आंबका पका फल वृक्ष साथ नहीं रहता, गिरि पड़ता है, तैसे शरीर भी नष्ट हो जाता है, जो शरीर अवश्य गिरता हैं, तिसका आसरा करना क्या है, जैसे सूखा पात वृक्षते गिर पड़ता है, तैसे यह शरीर गिर पड़ता है, ताते हम ऐसा कछु करै, जो संसाररूपी विधूचिका निवृत्त होवै, सो संसाररूपी