पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१९५

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(३३७६ ) योगवासिष्ठ । मृहूर्त भी चित्त विनी स्थित होवै, तब तेरे ताई आत्मपदकी प्राप्ति होवै। जबलग चित्तकी वासना क्षय नहीं होती, तबलग बड़े भ्रमको देखता है । हे रामजी ! यह संसार मृगतृष्णाकाजलरूप है, असत् है, आभास- मात्र पड़ा फुरता है, तिसपर एक आख्यान आगे हुआ है, सो कहता , तू श्रवण कर, मंदराचल पर्वत दक्षिणदिशाविषे हैं, तिसकी अटवी- विषे एक वैताल रहता था, महाभयानक तिसका आकार था, अरु मनु- ध्यका आहार करता था, तिसके मनविषे विचारे उपजा कि, किसी नगरको भोजन करौं, अरु वैताल एक समय साधुका संग भी करता था, जो कछु वह साधुतिस वैतालको भोजन कराता था, तब साधुसंगके प्रसा- देकार वैतालके मनविषे यह बुद्धि उपजी कि मेरी कौन गति होवैगी, मेरा आहार मनुष्य हो रहा है, अरु मैं जो मनुष्यका भोजन करता हौं सो बड़ी हत्या है, ताते मैं एक बृत्ति करौं, कि जो सूर्ख अज्ञानी मनुष्य हैं, तिनका भोजन करौं, अरु जो उत्तम पुरुष हैं, तिनका आहार न करौं। हे रामजी । ऐसी वृत्ति तिस वैतालने की, यद्यपि क्षुधाकर आतुर भी होवे, अरु भले मनुष्य आय प्राप्त हो वै तौ भी उनका आहार न करे, ऐसे होते एक समय क्षुधाकर बहुत व्याकुल भया, अरु रात्रिके समय घरते बाहर निकसा, तब उस नगरका राजा वीरयात्राको रात्रिके समय निकसा था, तिस राजाको देखिकर वैतालने कृहा ।। हे राजा । तू मेरे ताई अब आय प्राप्त हुआ है, मैं तुझको भोजन करता हौं, तू कहां जावैगा, तब राजाने कहा, हे रात्रिके विचरणेहारे वैताल ! जब तू मेरे निकट अन्यायकार आवैगा, तब तेरा शीश सहस्र टुकडे होवैगा, अरु तु गिरैगा, तब वैतालने कहा, हे राजा ! मैं तुझते डरता नहीं, है आत्महत्यारे ! मैं तेरे ताई भोजन कराँगा, भावै कैसा बली तू होवै, मैं डरता नहीं, परंतु एक प्रतिज्ञा मेरी है, अज्ञानीको भोजन करता हौं, अरु ज्ञानीको नहीं भारता, जो तू ज्ञानी है, तो न माराँगा, जो तू अज्ञानी है तो मारौंगा, जैसे बाज चिडीको मारता है, तैसे तुझको मागा, जो तू ज्ञानी है तो मेरे प्रश्नका उत्तर दे, एक प्रश्न यह है कि, जिसविषे ब्रह्मांडरूजी अणु है, सो सूर्य कौन है; अरु दूसरा प्रश्न