पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१६९

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(३०५० ) योगवासिष्ठं । पंचपंचाशत्तमः सर्गः ५५. श्रीकृष्णसंवादे अर्जुनविश्रौतिवर्णनम् । श्रीभगवानुवाच ॥ हे अर्जुन ! इसप्रकार तु निवसनिक जीवन्मुक्त होकर विचर, तब तेरा अंतःकरण शीतल हो जावैगा, अरु जरा- मरणते मुक्त निःसंग आकाशवव होवैगा, इष्टअनिष्टको त्यागि वीतराग - होकार स्थित होवैगा ॥ हे अर्जुन ! पतित प्रवाह जो कार्य आनि , प्राप्त होवै तिसको कर युद्धविषे कायरता मत कर, आत्मा अ- विनाशी है, अरु देह नाशवंत है, देहके नाश हुए आत्मा नाश नहीं होता ॥ हे अर्जुन ! जो जीवन्मुक्त पुरुष है; सो रागद्वेषते . रहित होकारै प्रवाहपतित कार्यको करते हैं, तू भी जीवन्मुक्त स्वभाव होकार विचर, अरु यह मैं करौं, यह न करौं इस ग्रहण त्यागके संकल्पको त्याग, इसकार ज्ञानवानबध्यमान नहीं होते, अरु मूर्ख हैं, सो इस विषे बध्यमान होते हैं, जो जीवन्मुक्त पुरुष हैं, सुषुप्तवत् स्थित होकार प्रवाहपतित कार्यको करते हैं, अरु प्रबुद्धकी नाईं वासनाते रहित हुए कार्य करते हैं, जैसे कच्छप अपने अंग खैचिलेता है, तैसे ज्ञानवान् वासनाको संकुचित करलेता है, अरु आपको चिन्मात्ररूप जानता है, अरु जगत् मेरेविषे मणकेकी नाई परोया हुआ है, अरु सब जगत् मेरे - अंग हैं, जैसे अपने हाथ पसारे, अरु बैंचै, जैसे समुद्रते तरंग उठते अरु लीन होते हैं, तैसे विश्व आत्माते उपजता अरु लीन होता है, भिन्न कछु नहीं ॥ हे अर्जुन ! चंदोएके ऊपर नानाप्रकारके चित्र लिखे होते हैं, परंतु वह रंगवस्त्रते भिन्न नहीं होते, तैसे आत्माविषे मनरूपी चितेरेने , जगत् रचा हैं, अरु अनउपजा होकार भासता है, जैसे स्तंभविषे चितेरा कल्पता है कि, एती पुतलियां निकसँगी, सो आकाशरूपी पुतलियां - तिसके मनविषे फुरती हैं, तैसे यह तीनों जगत् कालसंयुक्त चित्तविषे - फुरते हैं, चितेरा भी मूर्तियाँ तब लिखता है, जब भीत होती है यह आश्चर्य है कि, आकाशविषे मन मूर्तियोंको कल्पता है ॥ हे अर्जुन !