पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१६१

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(१०४२) योगवासिष्ठ । इंद्रियां प्राण मन बुद्धयादिक अनेक हैं; तिनविषे अहंप्रतीतिकरि एकत्र भाव देखना सो भी अज्ञानकार यह कलना हुई है, अरु ज्ञानकारकै नष्ट हो जाती है । हे अर्जुन 1 जेते कछु संकल्पजाल हैं, तिनका त्याग करना इसका नाम असंग संगतेरहित कहते हैं; अरु सब कलनाजालको ईश्वर साथ इतर भाव नहीं करना, इस भावनाकार द्वैतभाव गलित हो जावैगा,इसका नाम ईश्वरसमर्पण कहते॥ हे अर्जुन जब ऐसी अभेदभा- वना होती है, तब आत्मबोध प्राप्त होता है, अरु बोधकार सब शब्द अर्थ एकरूप भासतेहैं, सर्व शब्दों का एकही शब्द भासताहै, अरु एकही अर्थ सर्व शब्दोंविषे भासता है, ॥ हे अर्जुन! सर्व जगत् मैं हौं, मैंही दिशा हौं, मैंही आकाश हौं, मैंही कर्म हौं, मैही काल हौं, द्वैत भी मैंही हौं, अद्वैत भी मैं हौं, ऐसा जो सर्वात्मा मैं हौं, सो तू मेरेविषे मनको लगाये, मेरी भक्ति करु, अरु मेराही भजन करु, अरु मुझहीको नमस्कार करु, तब तू मुझहीको प्राप्त होवैगा ॥ हे अर्जुन ! मैं आत्मा हौं, तू मेरेही परा- यण होहु । अर्जुन उवाच ।। हे देव ! ऐसे तेरे दो रूप हैं, एक पंररूप है, एक अपररूप हैं, तिन दोनों रूपविषे मैं किसका आश्रय करों, जिसकारि मैं परमसिद्धांतको प्राप्त होऊं ॥ श्रीभगवानुवाच ॥ हे अनघ । एक समानरूप है, अरु एक परमरूप है, यह जो शंखचक्रगदादिक संयुक्त हैं, सो मेरा समानरूप है, अरु परमरूप मेरा आदिअंतते रहित एक -अनामय है, सो ब्रह्म आत्म परमात्मा आदिक शब्दोंकार कहता है जबलग तू अप्रबोधू है, अनात्म देहादिकविषे तुझको आत्मा- भिमान हैं, तबलग मेरे चतुर्भुज आकारकी पूजापरायण होउ, अरु कर्मीको करु, जब प्रबोध होवैगा, तब मेरे परमरूपको प्राप्त होवैगा, आदि अंत मध्यते रहित मेरा रूप है, तिसको पायकारे बारे जन्म- | मरणविषे न आवैगा, जब तू शत्रुको नाश करता हुआ ज्ञानवान् भया, तब आत्माकार आत्मासों मेरा पूजन करु, मैं सर्वका आत्मा हौं, यह मैं हौं, ऐसे जो मैं कहता हौं, सो आत्मतत्त्व बडार बहुरि कहता हौं ॥ हे अर्जुन ! मैं मानता हौं कि तू अब प्रबुद्ध हुआ है अरु आत्मपदविषे विश्रामवाना हुआ है, अरु संकल्पकलनाते रहित मुक्त हुआ है, एक आत्मसत्ताविषे स्थित हुआ है ऐसे योगकार