पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१६०

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अर्जुनोपदेशवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६. (१०४१ ) कहिये निदुःख कहिये भावनाकार भावित हुआ ईश्वर आत्मा होकर पृथ्वीका भूषण होकार विचरु, संन्यास योगयुक्त होकार कर्मीका करता मुक्तरूप होवैगा, सर्व संकल्पते संन्यास सम शांत होकार विचरु ॥ अर्जुन उवाच ॥ हे भगवन् ! संगत्याग किसको कहते हैं, अरु ब्रह्म- अर्पण किसको कहते हैं, ईश्वरअर्पण किसको कहते हैं, अरु संन्यास किसको कहते हैं, अरु योग किसको कहते हैं, उनको विभाग कारकै 'कहौ, मोहके निवृत्ति अर्थ ॥ श्रीभगवानुवाच ॥ हे अर्जुन ! प्रथम तू ब्रह्म सुन, कि किसको कहते हैं, जहाँ सर्व संकल्प शांत हैं एक घन- वेदना है, अपर कछु भावनाका उत्थान नहीं अचेतन चिन्मात्र, सत्ता है, तिसको परब्रह्म कहते हैं, ऐसे जानिकर तिसको पानेका उद्यम करना, जिस विचारसाथ तिसको पाइये, तिसका नाम ज्ञान है, अरु तिस- विषे स्थित होना तिसका नाम योग है, अरु यह सर्व ब्रह्म है, मैं ब्रह्म हौं सर्वं जगत मैंही हौं ब्रह्मते इतर कछु भावना न करनी इसका नाम ब्रह्मअर्पण है, अरु जो नानाप्रकारका जगत भासता है, सो क्या है, अंतर भी शून्य, बाहर भी शून्य, जिसको शिलाकी उपमाहै, ऐसा जो आकाशवत् सत्तारूप है, सो न शून्य है, न शिलावत है तिसके आश्रय स्पंदकलना फुरेकी नाईं, कछु होकार अन्यवत् भासती है; सो जगत्रूप होकार स्थित भई है, परंतु कैसी है, आकाशकी नाई शून्य हैं, तिसविषे जो विभागकलना हुई है, सो कोटि कोटि अंश जीवकला होती गई है, एकही अपृथक् अनेकभूत पृथक् पृथक् होकार स्थित भई है, जैसे समुद्रविषे तरंग बुद्बुदे अनेकरूप होकार स्थित होते हैं, सो जलही है; अपर कछु नहीं, एकही जल अनेकरूप भासता है, तैसे एकही वस्तुसत्ता घट पर्ट आदिक आकार होकर भासती है, संवितसारमें आत्माविषे भेदकलना कछु नहीं अज्ञान करिकै अनेक- रूप भेदकलना विकल्पजाल भासते हैं, अरु अनेकभावको एक देखना । भी अज्ञान है, अरु एकको अनेक देखना भी अज्ञान है, सो एक अनेक देखना क्या है, अरु अनेक एक देखना क्या है, जो एक आत्मा हैं, तिसको अनेक नामरूप देखना; सो अज्ञान है, अरु भिन्न भिन्न देह