पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१४५

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योगवासिष्ठ । उसका कहना भी वृथा होता है, तैसे अप्रबुद्धको सर्वं ब्रह्मका उपदेश व्यर्थ होता हैं, ताते मूढको युक्तिकार जगावता है, अरु बोधवान्को प्रत्यक्ष तत्त्वका उपदेश करता है। हे रामजी ! एता काल तू अप्रबोधथा, इस कारणते मैं तुझको नानाप्रकारकी युक्ति उपदेशकार जगाया है, अब तू जागा है, तब मैं तुझको प्रत्यक्ष तत्वका उपदेश किया है । हे रामजी ! अब तू ऐसे धार कि, मैं ब्रह्म हौं, यह तीनों जगत् भी ब्रह्म हैं, अहंस्त्वं आदिक सब ब्रह्महै, द्वैतकल्पना कछु नहीं, ऐसे धारिकरि जो तेरी इच्छा होय सो कर, दृश्य सैवेदन फुरै नहीं, सदा आत्माविषे स्थित रहै, इस- प्रकार अनेक कार्यविषे भी लेप न होवैगा ! हे रामजी ! जो चेतन वपु परमात्मा प्रकाशरूप है, सो सदा अहंभावकारिकै फुरता है, ऐसा जो अनुभवरूप, चलते, बेठते, खाते, पीते, चेष्टा करते तिसीविषे स्थित रहु • तब अहं ममभाव तेरा निवृत्त हो जावैगा, अवेदन जो शांतरूप ब्रह्म सर्व भुतविषे स्थित है, तिसको तू प्राप्त होवैगा, तब आदि अंतते रहित प्रकाशरूप आपको देखेगा, शुद्ध संवितमात्र आत्माको देखेगा, जैसे मृत्तिकाके पात्र टिंड, दोली घट आदिक सब मृत्तिकाका अपना आप है, तैसे तू सर्वभूत आत्माको देखेगा, जैसे मृत्तिकाते घट भिन्न नहीं, तैसे आत्माते जगत भिन्न नहीं, जैसे वायु अरु स्पंद भिन्न नहीं, अरु जलते तरंग भिन्न नहीं तैसे आत्माते प्रकृति भिन्न नहीं. जैसे जल अरु तरंग शब्दमात्र दो हैं, तैसे आत्मा अरु प्रकृति शब्दमात्र दो हैं, भेद- भाव कछु नहीं, अज्ञानकरिकै भेद भासता है, ज्ञानकरिकै भेद नष्ट हो जाता है, जैसे जेवरीविषे सर्प भासता है, तैसे आत्माविषे प्रकृति है । हे रामजी । चित्तरूपी वृक्ष है, अरु कल्पनारूपी बीज है, जब कल्पनारूपी बीज बोता है, तब चित्तरूपी अंकुर उत्पन्न होता है, तिसते भावरूप संसार उत्पन्न होता है, जब आत्मज्ञानकारकै कल्पनारूपी बीज दग्ध होता है, तब चित्तरूपी अंकुर नष्ट हो जाता है । हे रामजी । चित्त- रूपी अंकुरते सुखदुःखरूपी वृक्ष उत्पन्न होता है, जब चित्तरूपी अंकुर नष्ट हो जावै, तब सुखदुःखरूपी वृक्ष कहाँ उपजै ॥ हे रामजी । जेता कछु द्वैतंभ्रम हैं सो अबोधकारि उपजता है, बोधकार