पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१४३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(१०२४) योगवासिष्ठ । कारण कार्य जन्म स्थिति संहार आदिक जो संसरणारूप संसार है, सो सब ब्रह्मरूप है, इसी दृष्टिको आश्रय कारकै विचरौ ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे ब्रह्मैकताप्रतिपादनवर्णनं नाम सप्तचत्वारिं- शत्तमः सर्गः ॥ १७ ॥ अष्टचत्वारिंशत्तमः सर्गः ४८. स्मृतिविचारयोगवर्णनम् ।। राम उवाच ॥ हे भगवन् ! जब प्रत्यक् ब्रह्माविषे कोई विकार नहीं, तब भावअभावरूप जगत् किसकार भासता है । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! विकार किसको कहते हैं, प्रथम तौ यह सुन्, जो वस्तु अपने पूर्वरूपको त्यागिकार विपर्ययरूपको प्राप्त होवे, अरु बहुरि पूर्वके स्वरूप- को प्राप्त न होवे, तिसको विकार कहते हैं, जैसे दूधते दही होता है, वह बहुरि दूध नहीं होता, अरुजैसे बालक अवस्था बीति जाती हैं, बार नहीं होता, अरु युवा अवस्था गई हुई बहुरि नहीं आती, तिसका नाम विकार है, अरु ब्रह्म निर्मल है, आदि भी निर्विकार हैं, अंत भी निर्विकार है, मध्य जो तिसविषे कछ विकार मल भासता है, सो अज्ञानकार भासता है, मध्यविषे भी ब्रह्म अविकार ज्योंका त्यों है । हे रामजी ! जो पदार्थ विपर्ययरूप हो जाता है, सो बार अपने स्वरूपको नहीं प्राप्त होता, अरु ब्रह्मसत्ता ज्योंकी त्यों अद्वैतरूप आत्मअनुभवकरिकै प्रकाशती है, जो कबहूँ अन्यथा रूपको प्राप्त न होवे, तिसको विकार कैसे कहिये ॥ हे रामजी ! जो वस्तुविचार ज्ञानकारकै निवृत्त हो जावे, तिसको भ्रम- मात्र जानिये, वास्तव कछु नहीं, जेते कछु विकार हैं, सो अज्ञान कारकै भासते हैं, जब आत्मबोध होता है, तब निवृत्त हो जाते हैं, जिसके बोधकरिकै विकार नष्ट हो जावै हैं, तिसविषे विकार कैसे करिये, जो ब्रह्म शब्दकारकै कहाता है, सो निर्वेदरूप आत्मा है, जो आदि अंत- विषे सत् होवे, सो मध्यविषे भी जानिये कि सत् है, इसते इतर होवे, सो अज्ञानकारि जानिये, आत्मरूप सदा सर्वदा समरूप है, आकाश