पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१३६

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शिलाकोशोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१०३७) नाईं सुंदर हैं, बहुरि कैसा है, जो सुमेरु आदिक बडे पहाड हैं, तिनको महाप्रलयका पवन तृणोंकी नाईं उडवता है, सो पवन भी तिसको हिलाय नहीं सकता ॥ - हे रामजी ! योजनके अनंत कोटकोटान करिकै तिसकी संख्या नहीं की जाती, ऐसा वह बीलफल है, बहार कैसा है, बहुत बड़ा है, जैसे सुमेरुके निकट राईका दाना सूक्ष्म तुच्छ भासता है, तैसे तिस बीलफलके आगे , ब्रह्मांड सूक्ष्म तुच्छ भासता है, सो बीलफल रसकार पूर्ण है, गिरता कुबेहूं नहीं, अरु पुरातन है, तिसका आदि, अंत, मध्य ब्रह्मा, विष्णु, रु, इंद्रादिक भी नहीं जान सकते, न उसके मूलको कोई जान सकता है, न मध्यको कोई जान सकता है, अंदृष्ट उसका आकार है, अरु अदृष्ट फल है, अपने प्रकाशकार प्रकाशता है, बहुरि कैसा है, एक घन है आकार जिसका अरु सदा अचल है, किसी विकारको नहीं प्राप्त होता, सत् है, निर्मल निर्विकार निरंतररूप है, निरंध्र हैं, अरु चंद्रमाकी नाईं शीतल सुंदर है, अरु अज्ञान संवितरूपी तिसविषे रस है, सो अपना रस आपही लेता हैं, अरु सर्वको रस देनेहारा भी वही है, सबको प्रकाश करता भी वही है, तिसविषे अनेक चित्र रेखाने आनि निवास किया है, परंतु अपने स्वरूपको त्यागता नहीं ॥ अनेकरूप होकर भासता है, तिसविषे स्पंदरूपी रस फुरता है, तत्त्वं, इदं, देश, काल, क्रिया, नीति, राग, द्वेष, हेयोपादेय, भूत, भविष्यत्, काल, प्रकाश, तम, विद्या, अविद्या, इत्यादिक कलनाजाल इसके फुरणे कारकै फुरते हैं, सो बिल आत्मरूप है, अनुभवरूपी तिसविषे रस है, सो सदा अपने आपविषे स्थित है, नित्य शतरूप है, तिसको जानिकार पुरुष कृतकृत्य होता है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे बिलोपाख्यानं नाम चतुश्चत्वा- रिंशत्तमः सर्गः ॥ १४ ॥ पंचचत्वारिंशत्तमः सर्गः ४५. शिलाकोशोपदेशवर्णनम् । राम उवाच ।। हे भगवन् ! सर्व धर्मके वेत्ता ! तुम यह बिलरूपी मल्ला- चिद्धनसत्ता कही, सो ऐसे मेरे निश्चय भया किजो चेतन मज्जारूप