पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१३४

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चित्तसत्तासूचनवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. ( १०.३५) आपही जगावहु, तब इस बंधनते मुक्त होहुगे ॥ हे रामजी ! जिसविषे विषयका स्वाद नहीं, अरु जिसविषे इनको अनुभव होता है, सो तत्त्व आकाशवत निर्मल सत्ता वासनाते रहित है, जो वासनाते रहित होकर पुरुष कछु क्रिया करता है, सो विकारको नहीं प्राप्त होता, यद्यपि अनेक क्षोभ आनि प्राप्त होवें, तो भी उसको विकार कछु नहीं प्राप्त होता, ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय यह तीनों आत्मरूपभासते हैं, जब ऐसे जाना तब भयकिसीका नहीं रहता, चित्तके फुरणे कार जगत् उत्पन्न होता है, चित्तके अफुर हुए लीन हो जाता है, जब वासनासहित प्राण उदय होते हैं, तब जगत् उदय होता है, जब वासनासहित प्राण लीन होते हैं, तब जगत लीन होता है, अभ्यासकारकै वासना अरु प्राणोंको स्थित करौ, जब मूर्खता उदय होती है, तब कर्म उदय होते हैं, अरु मूर्खताके लीन हुए कर्म भी लीन होते हैं, ताते सत्संग अरु सच्छास्त्रोंके विचारकरि मूर्खताको क्षय करौ, जैसे वायुके सैगरि धूलि उडिकै बादल आकार होती है, तैसे चित्तके ऊरणेकार जगत् स्थित होता है । हे रामजी! जब चित्त फुरता है, तब नानाप्रकारका जगत् फुरे आता है, अरु चित्तके अफ़र हुए जगत् लीन हो जाता है । हे रामजी ! वासना शांत होवै, अथवा प्राणोंका निरोध होवे, तब चित्त अचित्त होजाता है, सो वासनाके क्षय हुए अथवा प्राणोंके रोकते चित्त अचित्त होता है, जब चित्त अचित्त हुआ, तब परमपदको प्राप्त होता है ॥ हे रामजी ! दृश्य दर्शन संबंधके मध्यविषे जो सुख है, सो परमात्मसुख है, जो एक- तका सुख है, सो संवित् ब्रह्मरूप है, तिसके साक्षात्कार हुए मन क्षय होता है, जहाँ चित्त नहीं उपजता सो चित्तते रहित अकृत्रिम सुख है, ऐसा सुख स्वर्गविषे भी नहीं जैसे मरुस्थलविषे वृक्ष नहीं होता तैसे चित्तसहित विषयकेविचे सुख नहीं होता, चित्तके उपशमविषे जो सुख है, सो अवाच्य है, वाणीकार नहीं कहा जाता, तिसके समान अपर सुख कोई नहीं, और तिसते अतिशय सुख भी नहीं, अपर सुख नाश हो जाता है, आत्मसुख नाश नहीं होता अविनाशी है, उपजने विनशने दोनोंते रहित है ॥ हे रामजी! अबोधकरिकै चित्त उदय होता