पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१२८

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परमार्थविचारवर्णन-निर्वाणकरणे ६. (१००९) अज्ञानकार यह जगत् भासता है, आत्मविचारकारे इसका अभाव हो। जाता है, जैसे मृगतृष्णाकी नदी भासती है, जैसे आकाशविषे नीलता अरु दूसरा चंद्रमा भासता है, तैसे आत्माविषे अज्ञानकारिकै देह भासता है, जिसकी देहादिकविषे स्थिर बुद्धि है, सो हमारे उपदेशके योग्य नहीं है । हे मुनीश्वर ! जो विचारवान है, तिसको उपदेश करना योग्य है, अरु जो मूर्ख भ्रमी है, अरु असतवादी सत्कर्मते रहित अनार्जव है, तिसको ज्ञानवान् उपदेश करे, जिसविचे विचार अरु वैराग्य होवे, कोम- लता अरु शुभ आचार होवे, तिसको उपदेश करना योग्य है, अरु जो इन गुणोंते रहित विपर्यय है, तिसको उपदेश करना ऐसे होता है, जैसे महासुंदर स्वर्णवत कांति ऐसी कन्या किसीकी होवे, अरु स्वप्न कल्पित पुरुषको विवाहि देनेकी इच्छा करे, तैसेही अपात्रको उपदेश करना मूर्खता है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे जगन्मिथ्यात्व- प्रतिपादनवर्णनं नाम चत्वारिंशत्तमः सर्गः ॥ १० ॥ एकचत्वारिंशत्तमः सर्गः ४१: परमार्थविचारवर्णनम् ।। वसिष्ठ उवाच ॥ हे भगवन् ! वह जीव जो आदि सर्गत उत्पन्न भयो, अरु देदभ्रम अपने साथ देखत्भया, तिसके अनंतर कैसे स्थित हुआ। ईश्वर उवाच ॥ हे मुनीश्वर । परमाकाशते उपजा, जैसे तुमको कहा हैं, सो अपनेसाथ शरीर देखत भया, स्वप्ननगरकी नाईं सर्वगत चिङ्घन आत्माके आश्रय उपजिकार जीव अपने शरीरको देखत भया ॥ है। मुनीश्वर आदि जो जीव फुरा है, अरु प्रमाको प्राप्त न भयो, अपने स्वरूपहीविष अप्रत्यय रहा, इस कारणते ईश्वर होकार स्थित भया, तिसको यह निश्चय रहा कि, मैं सनातन हौं, नित्य हैं, शुद्ध परमानंद स्वरूप हौं, अव्यक्तरूप परम पुरुष हौं, इसप्रकार आदि जीवका निश्चयं रहा, आत्माकी अपेक्षा कारकै तिसको जीव कहा है, अरु सृष्टि जगतकी अपेक्षा कारके उसको ईश्वर , कहा, है ॥ हे सुनीश्वरः ।