पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/११८

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ईश्वरोपाख्यानेऽन्तर्बाह्यपूजावर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (९९९) नेत्र, सहस्र जिसके शीश हैं, अरु सहस्र भुजा हैं, अरु सहस्र भुजाविषे भूषण हैं, सर्वत्र जिसकी नासिका इंद्रिय हैं, सर्वत्र जिसकी रसना इंद्रिय हैं, सर्वत्र श्रवण इंद्रिय हैं, सर्व और जिसका मनहै, अरु सर्व मनकलाते अतीत है, सवै ओर वही शिवरूप है, सर्वदा सर्वका कर्ता है, सर्व संकल्पके अर्थका फलदायक है, सर्व भूतके अंतर स्थित है, अरु सर्व साधनका सिद्ध कर्ता है, ऐसा जो देव है, सो सर्वविषे सर्वप्रकार सर्वदा काल स्थित है, तिस देवकी चिंतवना करौ, ऐसे देवके ध्यानविषे साव- धानरहौ, सदा तिनहीका आकार रहना, यह उस देवका पूजन है, अब अंतरका पूजन श्रवण करौ ॥ हे ब्रह्मवेत्ताविप श्रेष्ठ । संविमात्र जो देव है, सो सदा अनुभवकरि प्रकाशता है, तिसका पूजन दीपककार नहीं होता, न धूपकार होता है, न पुष्पकार होता हैं, न दानकर, न लेपके- सरकार तिसका पूजन होता है, अयपाद्यादिक जो पूजाकी सामग्री है, तिसकार देवका पूजन नहीं होता, तिसका पूजन केशविना नितही होता है ॥ हे मुनीश्वर ! एक अमृतरूपी जो बोध है, तिस देवका सज,तीय प्रतीत ध्यान करना सो तिसका परम पूजन है ॥ हे मुनीश्वर | शुद्ध चिन्मात्र जो देव है, अनुभवरूप है, निमका सो सर्वदा काल सर्व प्रकार पूजन करौ, देखता है, स्पर्श करता है, सँवताहै, श्रवण करता है, बोलता है, देता है, लेता है, चलता है, बैठना है इसते लेकर जो कछु क्रिया करता है, सो सुत्र प्रत्यक्ष चेतन साक्षीविषे अर्पण करौ, तिसी परायण हो, इसप्रकार आत्मदेवका पूजन करो ।। हे मुनीश्वर ! आत्मदेवका जो ध्यान करना यही धूप दीप हैं, अरु सर्व सामग्री पूजनकी यही है, ध्यानही देवको प्रसन्न करता है, तिसकार परमानंद प्राप्त होता है, अपरकार देवकी प्राप्ति नहीं होती ॥ हे मुनीश्वर । मूढ होवे अरु इसप्रकार ध्यानकार ईश्वरकी पूजा करै, तब त्रयोदश निमेप जगत् उड्डानफलको पाता है, अरु सत् निर्मपके ध्यानकार प्रभुको पूजे, तब मनुष्य अश्वमेध यज्ञके फलको पावै, अरु ध्यानके बलकार आत्मा- का घडीपर्यंत पूजन करे, तब वह पुरुप राजसूययज्ञ कियेके फलको पावै, जो दो प्रहरपर्यंत ध्यान करे तो लक्ष राजसूययज्ञके फलंको पावै,