पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/११५

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(९९६ ) , योगवासिष्ठ । महासतरूप है, सर्व सत्ताकी सत्ता वही सोचिन्मात्रतत्त्व है, सोई नाना- रूप हो रहा है, जैसे एकही आत्मसत्ता स्वप्नविषे आकाश कंध पहाड आदिक होकर भासती है, तैसे नाना रंग रंजना वही होकार भासता है, जैसे सूर्य की किरणोंविषे मरुस्थलकी नदी हो भासती है, अनेक कोट किरणोंते अनेक तरंग हो भासते हैं, तैसे यह जगत् तिसविषे भासता है ॥ हे मुनीश्वर ! उसीआत्मतत्त्वका यह आभास प्रकाश है, तिसते इतर कछु नहीं, जैसे अग्निते उष्णता भिन्न नहीं, वहीरूप है, तैसे आत्माते जगत कछ भिन्न नहीं, वही स्वरूप है, अरु सुमेरु भी तिसके आगे परमाणुरूप है, अरु संपूर्ण काल तिसका निमेषरूप है, कल्पकी निमेष उन्मेषवत् उदय अरु लय होते हैं, अरु सप्तसमुद्रसंयुक्त पृथ्वी तिसके रोमके अग्रवत् तुच्छ है, ऐसा वह देव है; बहुरि कैसा है, संसाररचनाको करता नहीं अरु कर्तृत्वभावको प्राप्त होता है, बड़े कमका करता भासता है, तौ भी कछु नहीं करता, दुव्यरूप - दृष्टि आता है, तो भी व्यते रहित है, निर्द्रव्य हैं, तो भी व्यवान् है, देह- वान् नहीं तौ भी देहवान है, अरु बड़ा देहवान है, तो भी अदेह है, सर्वका सत्तारूप वही देव है, हँढी, भोलि,घले, मतचुल, पिंढली,मागले, बेली, घिलिमला, लोबलाग, युगुल, सभस इत्यादिक वाक्य निरर्थक हैं, इनका अर्थ कछु नहीं सो भी देवकार सिद्ध होते हैं, ऐसा कछु नहीं, जो देवविषे असत् नहीं, अरु ऐसा भी कछु नहीं जो देवकार सत् नहीं॥ हे मुनीश्वर ! जिसते यह सर्व है, अरु जो यह सर्व है, जो सर्वमें नित्य है, तिस सर्वात्माको मेरा नमस्कार है॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रक- रणे महेश्वरवर्णनं नाम पंचत्रिंशत्तमः सर्गः ॥ ३५ ॥ पत्रिंशत्तमः सर्गः ३६. ईश्वरोपाख्याने नीतिनृत्यवर्णनम् । ईश्वर उवाच॥ हेमुनीश्वर ! इत्यादिक शब्दकी सत्तारूप वही है, सर्वसत्ता- रूप रत्नका डब्बा वही,तत्त्व चमत्कार कारकै क्रुरताह जैसे जलतरंग फैन बुद्बुदाआदिक आकार कारकै फुरताहै, तैसे देव नाना प्रकारके आकार