पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१०९

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{ ९९० ) यौगवासिष्ठ । परमानंद तेरा स्वरूप है । हे मुनीश्वर ! आत्मा सर्वशक्तिरूप है, जैसी भावना होती है, तैसाही अपनी भावनाकर देखता है, ताते सब संक- ल्पमात्र है, भ्रमकरिके उदय हुआ है, संकल्पके लीन हुए सब लीन हो जाता है । हे मुनीश्वर ! संकल्परूपी लकडी अरु तृष्णारूपी घृतकरिकै जन्मरूपी अग्निको यह जीव बढावता है तिसकरि अंत कदाचित् नहीं होता, जब असंकल्परूपी वायुकारे अंरु जलकर इसका अभाव करै तब शांति हो जाती है जैसे दीपक निर्वाण हो जाता है तैसे जन्मरूपी अग्निका अभाव हो जाता है, अरु संकल्परूपी वायुकारे तृणकी नाई भ्रमता है । हे मुनीश्वर ! तृष्णारूपी करंजुएकी वल्ली है, तिसको संक- ल्परूपी जलकार पड़ा सिंचता है, जब असंकल्परूपी शोपता अरु विचार- रूपी खड्कार काटै,तब तिसका अभाव हो जावै, जो आभासमात्र है, सो आभासके क्षय हुए अभाव हो जाता है, जैसे गंधर्वनगर होता है, तैसे यह जगत् असम्यक् ज्ञानकार भासता है, सम्यक् ज्ञानकारि लीन हो जाता है, जैसे कोऊराजा होवे,अरु स्वप्नविषे रंक हो जावै, पूर्वका स्वरूप विस्मरण हो जावे, अरु दीनताको प्राप्त होवै, जब पूर्वका स्वरूप स्मरण आवै, तब आपको राजा जाने, अरु दुःख मिटिजावे, निदुःखपदको प्राप्त होवे, तैसे इस जीवको अपना वास्तव पूर्वका स्वरूप विस्मरण हो गया है ति- सकार आपको परिच्छिन्न दीन दुःखी जानता है, जब स्वरूपका ज्ञान होवे, तब सब दुःखका अभाव हो जावै, जैसे शरत्कालका आकाश निर्मल होता है, जैसे निर्मल हो जावै जैसे वषीकालका भूल गयेते आकाश निर्मल होता है, तैसे अज्ञानरूपी सलते रहित जीव निर्मल होता है, शुद्ध पदको प्राप्त होता है, जो ऐसे युक्तिकार भावना करता है, कि मैं आत्मा हौं, एक हौं, बैतते रहित हौं, जब ऐसीभावना करेगा, तब सोई होवैगा, द्वैतका अभाव हो जावैगा, उत्तम पद ब्रह्मदेव पूज्य पूजक पूजा किचित् निष्किचनकी नाईं चित्त एकरूप हो जावेगा ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे ईश्वरोपाख्याने देवप्रतिपादन नाम द्वात्रिंशत्तमः सर्गः ॥ ३२ ॥