पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१०६

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ईश्वरोपाख्याने दैवप्रतिपादनवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (९८७) जाता है, जो वृक्षके पत्रनकी नाईं उपजते अरु नष्ट होते हैं, तिनका- शोक करना व्यर्थ है॥ हे मुनीश्वर! चैतनरूपी समुद्रविषेशरीररूपी तरंग बुबुदे अनेक उपजते हैं, अरु नष्ट होते हैं, तिनका शोक करना व्यर्थ है, जैसे दर्पणविषे अनेक पदार्थको प्रतिबिंब होता हैं, सो दर्पणते इतर कछु नहीं, तैसे चेतनविषे अनेक पदार्थ भासते हैं, सो चेतन निर्मल आकाशकी नाईं विस्तीर्णरूप है, तिसविषे जो पदार्थ फुरते हैं, सो अन- 'न्यरूप हैं, विधि शरीर भी वही रूप हैं ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाण- प्रकरणे ईश्वरोपाख्याने देहपातविचारो नाम एकत्रिंशत्तमः सर्गः ॥ ३१ ॥ द्वात्रिंशत्तमः सर्गः ३२. ईश्वरोपाख्याने दैवप्रतिपादनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे अर्धचंद्रधारी । जो चेतनतत्व परमात्मा पुरुष है, सो अनंत एकरूप है, तिसको यह द्वैत कहाँते प्राप्त भया है। अरु भूतभविष्यत् काल कहाते दृढ़ हो रहा है ? एकविषे अनेकता कहते प्राप्त भई है १ अरु बुद्धिमान् दुःखको कैसे निवृत्त करते हैं ? अरु कैसे निवृत्त होता है ? ॥ ईश्वर उवाच ॥ हे ब्राह्मण ! ब्रह्म चेतन सर्वशक्त है। जब वह एकही अद्वैत होता है, तब निर्मलताको प्राप्त होता है, एकके भावकार द्वैत कहता है, द्वैतकी अपेक्षाकार एक कहाता है, सो दोनों कल्पनामात्र हैं, तब चित्त फुरता है, जब एक अरु दोनोंकी कल्पना होती है, चित्तस्पंदके अभाव हुए, अरु दोनोंकी कल्पना मिटि जाती है, अरु कारणकार जो कार्य भासता है, सो भी एकरूप है, जैसे बीजते लेकर फलपर्यंत वृक्षका विस्तार हैं; सो एकरूप अरु बढना घटना उसविषे कल्पना होती है, तैसे चेतनविषे चितकल्पना होती है, तब जगतरूप हो भासता है, परंतु तिस कालविषे भी वहीरूप है । हे मुनीश्वर ! वृक्षके समय भी वस्तु बीज एकरूप है, कछु अपर नहीं हुआ, परंतु बीज फुरता है, तब वृक्ष हो भासता है, तैसे जब शुद्ध चेतनविषे चेतनकलना फुरती है, तब