पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१०३

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अरु संवेदनश्सु जहां प्राकिले सूर्यको प्रकार होता है, तो (९८४) योगवासिष्ठ । मनन होता है, संवित जो हैं स्वच्छरूप सो जड़ अजड़ सर्वत्र भासती हैं, अरु संवेदन प्राणकलाविषे फुरती है ॥ हे धुनीश्वर ! आत्मसत्ता सर्वत्र अनुस्यूत है, परंतु जहाँ प्राणकला होती है, तहाँ भासती है, जहाँ प्राणकला नहीं, तहाँ नहीं भासती, जैसे सूर्यको प्रकाश सर्व ठौरविषै। होता है, परंतु जहाँ उज्वल स्थान, जल अथवा दर्पण होता है, तह प्रतिबिंब भासता है, अपर ठौर नहीं भासता, तैसे आत्मसत्ता सर्वत्र है, परंतु जहां प्राणकला पुर्यष्टक होती हैं, तहां भासती है, अपर ठौर नहीं भासती, जैसे दर्पणविषे मुखका प्रतिबिंब भासता है, शिलाविपे नहीं भासता, तैसे पुर्यष्टक जो मनरूप है, सर्वका कारण है, अहंकार बुद्धि इंद्रियां सो तिसीके भेद हैं, जो आपहीकार कल्पित हैं, सर्व दृश्य जाल तिसहीकार उदय होते हैं, अपर वस्तु कोऊ नहीं, यह भली प्रकार अनुभव किया है, ताते मनही देहादिकको प्रवर्तेत्ता है, सो परमतत्त्व वस्तु तिसहीविषे भासता है ।। इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे ईश्व- रोपाख्याने मनःप्राणोक्तप्रतिपादनं नाम त्रिंशत्तमः सर्गः ॥३०॥ | एकत्रिंशत्तमः सर्गः ३१. | ईश्वरोपाख्याने देहपातविचारवर्णनम् ।। ईश्वर उवाच ।। हे मुनीश्वर ! आत्मसत्ताविना जीव कंधवत होता है, अरु आत्मसत्ताते चेतन होकार चेष्टा करता है, जैसे चुंबक पाषाणकी सत्ताते जड़ लोहा चेष्टा करता है, तैसे सर्वगत आत्माकी सत्ताकरि जीव फुरता है, अरु आत्मसत्ता भीजीवकलाविषे भासती है, अपर ठौर नहीं भासती, जैसे मुखका प्रतिबिंब दृर्पणविषे भासता है, अपर ठौर नहीं भासता, तैसे परमात्मा सर्वगत सर्वशक्ति भी हैं, परंतु भासता जीवकला- हीविषे है।हे मुनीश्वर ! शुद्ध वास्तव स्वरूपते जो इसजीवकलीका उत्थान हुआ है, अरु दृश्यकी ओर वही है, तिसकार चित्तभावको प्राप्त भई हैं, जैसे शूद्रनकी संगति कारकै ब्राह्मण भी आपको शूद्र मानने लगता है, तैसे स्वरूपके प्रमाद कारकै जीवकला आपको चित्त दृश्यभाव जानने