पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/८२२

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८१४ पोमवाशिष्ठ। नहीं होता। जैसे सुमेरु पर्वत जल के समूह से चलायमान नहीं होता तेसे ही वह संकल्प विकल्प में चलायमान नहीं होता। जिसकी मात्मपद में विश्रान्ति हुई है वह उत्कृष्टता को प्राप्त हुआ है । हे रामजी । उसको यह जगत् ज्ञानमात्र भासता है और वह उसे संवित्मात्र जानकर विचार करता है, न किसी का प्रहण है और न त्याग करता है। इससे प्रान्ति को त्यागकर संवितमात्र ही तेरा स्वरूप है, किसका त्याम करता है और किसका ग्रहण करता है? जो मादि में भी न हो, मन्त में भी न रहे और मध्य में भासे उसे भ्रममात्र जानिये । इस प्रकार जानकर, भाव प्रभाव की बुद्धि को त्यागकर मौर निस्संवेदनरूप होकर संसारसमुद्र से तर जामो भोर मन, बुद्धि और इन्द्रियों से कर्म करो चाहे न करो, निस्सा होगे तब तुमको खेपन होगा। हे रामजी। जिसका मन भभिमान से रहित हुआ है वह कर्म करता भी लेपायमान नहीं होता। जैसे मन और ठौर गया होता है तो विद्यमान शब्द भगवा रूप पदायों को प्रस्तुत होते भी नहीं जानता; तैसे ही जिसका मन मात्म- पद में स्थित हुभा है उसको सुख दुःख कर्म नहीं लगता जो पुरुष भभिमान से रहित है वह कमों में सुख दुःख भोगता दृष्टि पाता है परन्तु वह उसको स्पर्श नहीं करते । देखो, यह बालक भी जानते हैं कि मन और ठौर जाता है तो सुनता भी नहीं सुनता, तैसे ही वह पुरुष करता भी नहीं करता । हे रामजी ! जिसका मन मसंग हुमा है वह देखता है परन्तु नहीं देखता, सुनता है परन्तु नहीं सुनता, स्पर्श करता है परन्तु नहीं करता, सूंघता और रस देता है परन्तु नहीं लेता इत्यादिक जो कुछ चेष्टा है सो कर्ता भी वह अकर्ता है और उसका चित्त भात्मपद में लीन हुआ है। जैसे कोई पुरुष देशान्तर को जाताहे तो वह उस देश में व्यवहार कर्म करता है परन्तु उसका चित्त गृह में रहता है तैसे ही बान- वान का चित्त भात्मपद में रहता है। यह बात मूर्ख भी जानता है। जैसा वेग मन में तीव्र होता है उसकी सिद्धि होती है और वही भासता है और नहीं भासता । हे रामजी ! सब मनयों का कारण संग है, संसार के संग से ही जन्म-मरण के बन्धन को प्राप्त होता है, इससे सब .