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वैराग्य प्रकरण।

है वैसे ही मनुष्य बहुत हैं, परन्तु ऐसा कोई बिरला ही होता है। ऐसे पात्र से थोड़ा अर्थ कहा भी बहुत हो जाता है। जैसे तेल की बुंद थोड़े ही जल में डालिये तो फैल जाती है वैसे ही थोड़े वचन तुम्हारे हिये में बहुत होते हैं। तुम्हारी बुद्धि बहुत विशेष है और दीपक सी प्रकाशवाली और बोध का परम पात्र है। कहनेमात्र से ही तुमको शीघ्र ज्ञान होवेगा और जो हमारे सामने तुमको ज्ञान न हो तो जानना कि हम सब मूर्ख बैठे हैं।

 

इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैराग्यप्रकरणे मुनिसमाजवर्णनन्नामा-
ष्टाविंशतितमस्सर्गः॥२८॥

 

समाप्तमिदं वैराग्यप्रकरणम्॥