पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/८०७

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उपशम प्रकरण ७६४ से भासता है और संकल्पपुर भासता है सो असत् है तेसे ही यह जगत् असत् है। जैसे मृत्तिका में घटमाव होता है तैसे चित्त में जगत् का सद्भाव होता है । चित्तरूपी अंकुर के वृत्तिरूपी दो टास होते हैं-एक प्राणों का फुरना और दूसरा हदभावना । जब माणस्पन्द होता है और हृदयमात्र में जो एकसौ एक नाड़ी है उनकी भोर संवेदनरूप चित्त उदय होता है तब प्राणस्पन्द फुरता है । जब प्राण फुरता है तब शुद्ध सात्तिक वित्त उपजता है और उसमें जगत् भासता है । जैसे प्राकाश में नीलता भासती है तैसे ही प्राणों में नीलता भासती है । जब प्राणस्पन्द होता है तब चित्तसंवित् उछलती है-जैसे हाथ से ताड़ना किया गेंद उछलता है । जैसे पाणस्पन्द में सर्वगत संवित् उपलब्धरूप होती है और वहाँ प्रतिविम्वरूप होकर सात्त्विकभाग में स्थित होती है और महासूक्ष्म से सूक्ष्म है-जैसे वायु में गन्ध रहती है। वही संविवरूप को त्यागकर जब बहिर्मुख धावती है तब उससे नाना प्रकार के जगत् भासते हैं और नाना प्रकार की वासना उठती हैं और उनसे अनेक दुःखों को प्राप्त होता है । इससे हे रामजी! संवित् को अन्तर्मुख रोकना ही कल्याण का कारण है । जब संवित् स्वरूप में स्थित होती है तब क्षोभ मिट जाता है और जब शुद्ध संवित् में महं उल्लेख फुरता है तब वेदनरूप होती है सो ही चित्त है, चित्त से भनेक दुःख होते हैं और चित्त का अनर्थ का होना कारण है। जब चित्त न उपजे तब शान्ति हो जाती है और चित्त तब निवृत्त होता है जब प्राणस्पन्द रोकिये अथवा वासना नष्ट हो ध्यान और प्राणायाम से योगीश्वर प्राणों को रोकता हे तब चित्त स्थित हो जाता है। यह योग से अनुभव करता है । ज्ञान से जो अनुभव होता है सो भी सुनो। हे रामजी | चित्त वासना से उत्पन्न होता है और वासना विचार से रहित फुरती है जैसे बालकों को जन्म से ही स्तनों से दूध पीने की वृत्ति फुरती है तेसे ही अकस्मात् भावना की दृढ़ता से वासना फर पाती है। हे रामजी। जिसमें पुरुष की तीव्र भावना होती है वही रूप पुरुष का होता है । स्व- रूप के प्रमाद से जो भासित होता है उसमें दृढ़ प्रतीत हो जाती है तब उसकी भावना करता है और जगत् की वासना से मोह प्राप्त होता है