पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/८०३

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उपशम प्रकरण। ७६५ नहीं होता, वीतव की प्राणों के भीतर और बाहर की स्पन्दकला शान्त होगई थी भोर प्राण और वित्तकला दोनों फुरने से रहित थीं, इससे उसका हृदय भी क्षोभित न हुमा। हे रामजी ! देहरूपीगृह में जर चित्त भोर वायु का स्पन्द शान्त हो जाता है तब शरीर नष्ट हो जाता है और सब सुमेरु की नाई स्थित हो जाता है, तब किसी की सामर्थ्य नहीं होती कि इसको शोभ करे और नाश करे । योगीश्वर का चित्त और प्राण निस्पन्द हो जाते हैं । वह इनको वश करके लगाता है तब उसको न तत्त्वों का क्षोभ होता है, न पित्त, कफ का लोभ होता है और न और कुब बोभ होता है। इस कारण योगी का शरीर सहस वर्ष पर्यन्त भी ज्यों का त्यों रहता है, नष्ट नहीं होता । जैसे वज्र को कोई चूर्ण नहीं कर सकता तैसे ही उसके शरीर को कोई नष्ट नहीं कर सकता- सब की शक्ति उसपर कुण्ठित हो जाती है। इस कारण वीतव का शरीर ज्यों का त्यों रहा । पहले वह विदेहमुक्त क्यों न हुआ सो भी सुनो। हे रामजी! जो तत्त्वज्ञ और विदितवेद, वीतराग महाबुद्धिमान हैं जिनकी अभिमानरूपी गाँठि टूट पड़ी है वे पुरुष स्वतन्त्र स्थित होते हैं, उनका न कोई पारधर्म है, न संचितकर्म है और न वर्तमान का कर्म है। तत्त्ववेत्ता सबसे मुक्त, स्वतन्त्र और स्वेच्छित विचरता है और जैसी इच्छा करे तैसी शीघ्र ही होती है। हे रामजीवीतव को जब अकस्मात् से जीने का स्पन्द फर आया तब यह कुछ काल जीता रहा और जब उसकी संवित में विदेहमुक्त होने का स्पन्द फुरा तब विदेहे मुक्त हो गया। जानवानों की स्थिति स्वाभाविक स्वतन्त्र होती है, जिसकी वे वाचा करते हैं सो तत्काल ही हो जाता है और मन मात्मपद में स्थित होता है, उनको कुछ कृत और कर्तव्य नहीं। इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे सिद्धिलामविचारो नाम पञ्चाशीतितमस्सर्गः॥५॥ रामजी ने प्रवा, हे भगवन् ! मापने कहा कि जब विचार से वीतव का वित्त शान्त हो गया तब उसको मैत्री, करुणादिक गुण प्राप्त हुए, परन्तु जब विवेक से उसका चित्त नष्ट हो गया तो फिर मैत्री भादिक