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इस पुस्तक में छः प्रकरण हैं। प्रथम वैराग्य, दितीय मुमुक्षु, तृतीय उत्पत्ति, चतुर्थ स्थिति, पंचम उपशम और षष्ठ निर्वाण। इनमें नामसदृश ही विषय भी हैं।
अब इसके भाषान्तर होने का हाल वर्णन किया जाता है। अनुमान डेढ़सौ वर्ष के व्यतीत हुए कि पटियालानगरनरेश श्रीयुत साहबसिंहजी वीरेश कीदोबहिनें विधवा हो गई थी इसलिये उन्होंने साधु रामप्रसादजी निरंजनी से कहा कि श्रीयोगवाशिष्ठ जो अति ज्ञानामृत है सुनाओ तो अच्छी बात हो। निदान उन्होंने योगवाशिष्ठ की कथा सुनाना स्वीकार किया और उन दोनों बहिनों ने दो गुप्त लेखक बैठा दिये। ज्यों ज्यों पण्डितजी कहते थे वे प्रत्यक्षर लिखते जाते थे। जब इसी तरह कुछ समय में कथा पूर्ण हुई तो यह अन्य भी तैयार हो गया। इसमें कथा की रीति थी, कुछ उल्थे का प्रकार न था और पंजाबी शब्द मिले हुये थे। प्रथम यह ग्रन्थ ऐसा ही बम्बई नगर में अगहन संवत् १९२२ में छपा। जब इसका इस भाँति प्रचार हुआ और ज्ञानियों को कुछ इसका सुख पास हुआ तो चारों ओर से यह इच्छा हुई कि यदि पंजाबी बोलियाँ और इबारत सुधारकर यह पुस्तक छापी जावे तो अति उत्तम हो। तथा च श्रीमान मुंशी नवलकिशोरजी ने वैकुण्ठवासी पंडित प्यारेलाल रुग्गू कश्मीरी को मात्रा दी और उन्होंने बोलियाँ बदलकर और जहाँतहाँ की इबारत सुधारकर उनकी आज्ञा का प्रतिपालन किया। आशा है कि पाठकगण इसे देखकर बहुत प्रसन्न होंगे।