पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७९६

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Ugg योगवाशिष्ठ। नमस्कार है, अब तू जा। हे गिरिकन्दरा ! तुझको भी नमस्कार है। तुममें मैंने चिरकाबतपकिया है। हेबुद्धि। हे विवेक । तुमको भी नमस्कार है। तुमने मेरे साथ उपकार किया है कि संसारबन्धन से मुक्त किया।तुम भी जायो । दण्ड भोर तूंवा । तुमको भी नमस्कार है। तुम भी जायो। बहुत काब तुम भी मेरे सम्बन्धी रहे हो । हे देह ! रकमांस का पिंजरहोकर तू मेरे साथ बहुत काल रही है भोर तूने उपकार किया है। विवेक उप- जाने का स्थान तू ही है, तेरे संयोग से मैंने परमपद पाया हेतुभीमब जा, तुझको नमस्कारहे। हे संसार के व्यवहारो! तुमको भी नमस्कार है, तुम्हारे में मैंने बहुत क्रियाकी है ।ऐसा पदार्थ जगत में कोई नहीं जिससे मैंने व्यवहार न किया हो, ऐसा कर्म कोई नहीं जो मैंने न किया होगा मोर ऐसा देश कोई नहीं जो देखा न होगा। अब सबको नमस्कार है। हे इन्द्रियो, प्राण और मनादिक | तुमको नमस्कार है । तुम्हारा हमारा चिरकाल संयोग था भव वियोग हुमा, क्योंकि जिसका संयोग होता है उसका वियोग भी होता है। इससे तुम्हारा हमारा भी वियोग होता है। नेत्रों की ज्योति सूर्यमण्डल में जा लीन होगी, प्राणों की गन्ध पृथ्वी में लीन होगी और प्राण त्वचा पवन में, श्रवण आकाश में, मन चन्द्रमा में और जिहा रस में लीन होगी। इसी प्रकार सब अपने- अपने भंश में लीन होंगे। जैसे लकड़ियों के जले से अग्नि शान्त हो जाती है, शरत्काल में मेघ शान्त हो जाता है, तेल से रहित दीपक निर्वाण हो जाता है और सूर्य के प्रस्त हुए प्रकाश शान्त हो जाता हे तैसे ही मनादिक शान्त हो जायेंगे। हे रामजी! ऐसे विचार करते करते उसका मन सर्वकार्य से रहित हो प्रणव के ध्यान में लगा और सर्व- दृश्य से शान्त और मोहरूपी मल को त्यागकर प्रणव के विचार में लगा। इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे दयशीततिमस्सर्गः ॥२॥ वशिष्ठजी बोले, हे रामजी ! इस प्रकार उसने शब्दब्रह्म प्रणव का उच्चार किया और पञ्चम भूमिका जो चित्त की अवस्था है उसको प्राप्त हुमा । भीतर-बाहर के स्थूल-सूक्ष्म पदार्थो भोर त्रिलोकी के सब संकल्पों को त्यागकर वह प्रक्षोभरूप स्थित हुमा जैसे चिन्तामणि अपने प्रकाश