पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७९४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

७८६ योगवाशिष्ठ। भाकार होता तैसे स्थ है उसमें बैठनेवाला पुरुष भी और होता है और स्व की सामग्री परस्पर भिन्न-भिन्न होती है तो यदि उसमें बैठनेवाला कहे कि मैं स्थ हूँ तो नहीं बनता तैसे ही शरीररूपी स्थ महान से मिला है। इन्द्रियाँ और हैं भोर मनादिक और हैं उसमें पुरुष है सो जीव है. यदि जीव कह कि मैं शरीर हूँ तो बड़ी मूर्खता है । उस शरीर के सुख- दुःख मूर्खता से भापको मानता है जो विचार करके देखो तो रागदेष के क्षोभ से मुक्त हो । मैंने भविवार को दूर से त्यागा है और स्वरूप की स्मृति स्पष्ट की है कि मात्मातत्त्व सत् है । उसी को मैंने सत् जाना है भोर मनात्मा असत् है उसको भसत् जाना है। जो सत् है वह स्थित है, जो असद है वह क्षीण हो जाता है । हे रामजी ! इस प्रकार वीतव मुनि विचार करके जीवन्मुक्त हुमा और अपने स्वरूप में बहुत वर्षों को व्यतीत किया। निर्यपद में चित्तादिक भ्रम सब नष्ट हो जाते हैं। ऐसे शुद्धपद को प्राप्त हुआ वह यथाभूतार्थ प्रात्मध्यान में स्थित हुभा और ग्रहण और त्याग की कुछ भावना न रही परिपूर्ण प्रात्मपद को प्राप्त हुमा। अगस्त्य मुनि का पुत्र वीतव मुनि उस पद को पाकर निर्वासनिक हुमा । फिर जिस काल में और जिस प्रकार से वह विदेह- मुक्त हुआ है वह भी सुनो । बीस हजार और सात सौ वर्ष वह जीवन्मुक्त रहकर फिर विदेहमुक्त हुमा, जो इच्छा अनिच्छा से रहित पद है और जन्म-मरण का जिसमें अन्त है उस रागदेष से रहित पद को प्राप्त हुमा । हे रामजी । फिर उसने हिमालय पर्वत की कन्दरा में प्रवेश किया पौर पद्मासन बाँध हाथ जोड़कर कहा, हे राग राग तुम निरागता और निर्देषता को प्राप्त हो। तुम्हारे साथ मैंने चिरपर्यन्त विवेक से रहित क्रीड़ा की है। तुम अब जामो, मेरा तुमको नमस्कार है। हे भोग। तुम्हारी लालसा से मुझको परमपद का विस्मरण हो गया था। जैसे माता सुख के निमित्त पुत्र की लालसा करती है तैसे ही मैं सुख जानकर तुम्हारी बालसा करता था। अब तुम जामो तुमको मेरा नमस्कार है। अब मैं निर्वाणपद को प्राप्त होता हूँ। हे दुःख ! तुमको भी नमस्कार है। तेरे उपदेश से मैं भात्मपद को प्राप्त हुमा हूँ, क्योंकि मैं सदा भोग और सुख