पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७८८

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७८० योगवाशिष्ठ। मोर धावेगा तो तेरा कल्याण न होगा और जोमात्मा की भोर भावेगा तो तेरा कल्याण होगा जब तू अपना प्रभाव कर भात्मपद में स्थित होगा तब कल्याणरूप होगा और जो तू अपना सद्भाव करेगा कि भाकार को न त्यागेगा तो दुःखी होगा । जो तेरा जीना है वह मृत्यु समान है और जो मृत्यु है सो जीने के समान है। दोनों पक्षों में जो तेरी इच्छा हो सो अङ्गीकार कर । जो तू भवही भापको भात्मपद में निर्वाण करेगा तो परमपद को प्राप्त होकर परमसुखी होगा मोर जो न करेगा तो परम दुःखी होगा जो प्रात्मपद को त्याग करेगा वह मूढ़ है। तेरा निर्वाण होना भात्मपद में जीने का निमित्त है और भात्मा से भिन्न जो तू जीने की इच्छा करता है सो तेरा जीना मिथ्या अर्थात् त मादि भी मिथ्या है और अब भी विचार विना भ्रममात्र है, विचार किये से नष्ट हो जावेगा। जैसे सूर्य के प्रकाश विना अंधकार होता है और प्रकाश से नष्ट हो जाता है तेसे ही विचार विना चित्त है, विचार से नष्ट हो जाता है । इतने काल मैं भविवेक से ही जीता था। जैसे बालकों को अपनी परछाही में वैताल कल्पना होती है और विचार विना भय पाती है-विचार किये से निर्भय होता है तैसे ही अब मैं तेरे संग से छूट अपने पूर्व स्वरूप को प्राप्त हुआ हूँ और विवेक से तेरा प्रभाव हुआ है। इससे विवेक को नमस्कार है। हे चित्त अविवेक से तू मेरा मित्र था अब बोध से तेरा चित्तभाव नष्ट हो गया। तू परमेश्वररूप है । अब वासना नष्ट हुई है। भागे तेरे में नाना प्रकार की वासना थी उससे तू मलिन और दुःखरूप था। भव वासना के नष्ट होने से तेरा परमेश्वररूप हुमा है। तेरे में भवान से चित्तस्वभाव उपजा दुःखों का कारण था सो विवेक से खीन हुमा है । जैसे रात्रि के पदार्थ सूर्य के उदय हुए लीन हो जाते हैं तैसे ही विवेक से चित्तभाव नष्ट हुमा है सो सिद्धान्त का कारण है। तेरे संग से मैं तुच्छ सा हो गया था, भव शानों की युक्ति से निर्णय किया है कि न तू भागे था, न अब है और न फिर होगा। जबतक मैंने भापको न जाना था तबतक तेरा सद्भाव था, भव मैने पापको जाना है और अपने भापमें स्थित हुया हूँ। अब में परम निर्वाण और शान्त