पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७७९

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

उपशम प्रकरण। मृगतृष्णा कीनदी असत् होती है तेसे ही ये भी असवरूप है।हे मन ! ये तो सब प्रसाररूप हैं तू भी इन्द्रियों सहित जड़रूप है, तू कर्तृत्व का अभि- मान क्यों करता है ? सबका कर्ता चिदानन्द भात्मभगवान सदा साक्षी है तैसे ही आत्मा भी साधी है तू क्यों वृथा तपायमान होता है । जैसे सूर्य सबकी क्रियामों को कराता साक्षी तेसे ही प्रात्मा साखी हे और सब जगत् भ्रान्तिमात्र है। जैसे अज्ञान से रस्सी में सर्प भासता है तैसे ही भवान से भात्मा में जगत् भासता है। जैसे भाकाश और पाताल का सम्बन्ध कुछ नहीं होता, ब्राह्मण भोर चाण्डाल का संयोग नहीं होता मोर सूर्य और तम का सम्बन्ध नहीं होता, तैसे भात्मा चित्त मोर इन्द्रियों का सम्बन्ध नहीं होता।मात्मा सत्तामात्र है और ये जड़ और भसतरूप हैं इनका सम्बन्ध कैसे हो पात्मा सबसे न्यारा साक्षी है। जैसे सूर्य सब जनों से न्यारा रहता है तैसे ही प्रात्मा सबसे न्यारा साक्षी है। हे चित्त ! तू तो मूर्ख है विषयरूपी चनेने में राग करके सब भोर से भक्षण करता भी कदाचित् तृप्त नहीं होता और तु विचार के मिथ्या कूकर की नाई चेष्टा करता है । तेरे साथ हमको कुछ प्रयोजन नहीं । हे मूर्ख ! तू तो मिथ्या अहं अहं करता है और तेरी वासना अत्यन्त असत- रूप है और जिन पदार्थों की तू वासना करता है वे भी भसवरूप हैं। तेरा भौर मात्मा का सम्बन्ध कैसे हो? प्रात्मा चतन्यरूप है और तू मिथ्या जहरूप है । यह मैंने जाना है कि जन्ममरण भादिक विकार और जीवत्व भाव को तूने मुझको प्राप्त किया है । मैं तो केवल चैतन्य परब्रह्म हूँ मिथ्या अहंकार करके जीवत्वभाव को प्राप्त हुआ हूँ और देहमात्र पापको जानता हूँ। मैं तो संवित्मात्र नित्यशुद्ध प्रादि अन्त से रहित परमानन्द चिदाकाश अनन्त भात्मा हूँ। अब में स्वरूप में जागा हूँ और सद्भाव मुझको कुछ नहीं दृष्टि पाता। हे मूर्ख मन । जिन भोगों को तू सुखरूप जानकर धावता है वे भविचार से प्रथम तो अमृत की नाई भासते हैं और पीचे विष की नाई हो जाते हैं और वियोग से जलाते हैं। भापको तू कर्ता भोक्का भी मिथ्यामानता है, तू का भोक्ता नहीं और इन्द्रियाँ कर्ता भोक्ता नहीं, क्योंकि जड़ हैं। जो तुम जड़ हुए तो तुम्हारे साथ मित्र-