पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७७५

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उपशम प्रकरण। दृष्टि नहीं भाता। हे मूर्ख वित्त! तू बहुत काल इस देहरूपी गृह में रहा है और तू वैतालरूप है। जैसे अपवित्र और श्मशान भादिक स्थानों में वेताल रहता है तेसे ही सत्संग से रहित देहरूपी गृह श्मशान के समान सदा अपवित्र है वहाँ तेरे रहने का स्थान है। जहाँ सन्तों का निवास होता है वहाँ तुझ सरीखे ठोर नहीं पाते सो भव मेरे हृदयरूपीगृह में सत् विचार सन्तोषादिक सन्तजन मान स्थित हुए हैं तेरे बसने का और नहीं। हे चित्त पिशाच तूपूर्वरूपी तृष्णा पिशाचिनी और काम कोषा- दिक गुह्यक अपने साथ लेकर चिरपर्यन्त विचरा है अब विवेकरूपी मंत्र से मैंने तुझको निकाला है तब कल्याण हुमा। हे चित्त ! पिशाचरूप । तू प्रमादरूपी मद्यपानकर मत्त हुमाया और चिरपर्यन्त नृत्य करता था। अब मैंने विवेकरूपी मंत्र से तुझको निकाला है तब देहरूपी कन्दराशुद्ध हुई है और शुद्धभाव पुरुषों ने निवास किया है । हे चित्त ! मैंने तुझको विवेकरूपी मंत्रद्वारा वश किया है। अब तेरा क्या पराक्रम है ? तक्तक दुःख देता था जबतक विचाररूपी मंत्र न पाया था। अब तेरा बल कुब नहीं चलता। अब मैं महाकेवल भाव में स्थित हूँ। भागे भी मैं तुझको जगाता था, मापसे ही तसवरूप है। जैसे कच्चे मन्त्रवाला सिंह को जगाता है और भाप कष्ट पाता है तैसे ही मैं तुझको जगाकर कष्ट पाता था। अब मैंने आत्मविचार से परिपक्क मन्त्र से तुझे वश किया है तब शान्ति- मान हुमा हूँ। अब ममता और मान मेरे कुछ नहीं रहे । मोह अहंकार सब नष्ट हो गये हैं और इनका कलत्र भी नष्ट हो गया है। मैं निर्मल और चैतन्य पात्मा हूँ। मेरा मुझको नमस्कार है। न मेरे में कोई भाशा है, न कर्म है, न संसार है, न कर्तृत्व है, न मन है, न भोक्तृत्व है और न देह है, ऐसा मेरा निर्गुणरूपमात्मा है । मेरा मुझको नमस्कार है । न कोई भात्मा है, न अनात्मा है, न अहं है, न त्वं है, किसी शब्द का वहाँ प्रवेश नहीं ऐसा निराशपद है। प्रकाशरूप, निर्मल भात्मा मैं अपने मापमें स्थित हूँ। ऐसा जो मैं मात्मा हूँ मेरा मुझको नमस्कार है। मैं विकारी नहीं हूँ, मैं तो नित्य हूँ, निराश हूँ, सर्वकार्यों में मनुस्यूत हूँ, मंशांशीभाव से रहित हूँ। ऐसा सर्वात्मा जो मैं हूँ सो मेरा मुझको .