पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७७२

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योगवाशिष्ठ क्योंकि उसको भात्मा जगवरूप भासता है और सम्यक्दी को केवल मात्मा भासती है। जैसे रस्सी में असम्यकदर्शी को सर्प भासता है और सम्यक्दर्शी को रस्सी ही भासती है। सर्वसंवेदन और संकल्प से रहित. शुद्ध संवित् परमात्मा हे उसको जो जानता है वही परमात्मा का जाननेवाला बुद्धीश्वर है। इससे भिन्न विद्या है। हे रामजी ! भात्म- तत्त्व सदा अपने आपमें स्थित है और उसमें देतकलना कोई नहीं। ऐसा जो यथार्थदर्शी है वही सम्यकदर्शी है । सर्व मात्मा पूर्ण है उसमें भाव, प्रभाव, बन्ध, मोक्ष कोई नहीं भोरन एक है, न देत है, ब्रह्मा ही अपने आपमें स्थित है जो सब चिदाकाश है तो कन्ध किसे कहिये और मोक्ष कौन हो ऐसा जिसको ज्ञान है उनको काष्ठ-पाषाण ब्रह्मा से न्यूटी पर्यन्त सम भासता है अल्पमात्र भी भेद नहीं भासता तो वह कल्पना के सम्मुख कैसे होवे ? हे रामजी! वस्तु के प्रादि-अन्त अन्वय व्यति- रेक करके प्रात्मा सिद्ध होता हे अर्थात् पदार्थ है तो भी भात्मसत्ता से सिद्ध होता है और जो पदार्थ का प्रभाव हो जाता है तो भी भात्म- सत्ता शेष रहती है। तुम उसी के परायण हो रहो। वही अनुभवसत्ता जगतरूप होकर भासती हे मोर जरा-मरण आदिक जो नाना प्रकार के विकार वस्तुरूप भासते हैं वह वस्तु अपने भापमें ही फुरती है। जैसे जल में द्रवता से नाना प्रकार के तर बुबुदे होते हैं सो वे जलरूप हैं। कुछ भिन्न नहीं, तैसे ही चित्त के फुरने से जो नाना प्रकार के पदार्थ भासते हैं सो आत्मरूप हैं। मात्मतत्त्व ही अपने भापमें स्थित है, जब उममें स्थित होता है तब फिर दीन नहीं होता जो पुरुष दृढ़ विचारवान है वह भोगों से चलायमान नहीं होता-जैसे मन्द पवन से सुमेरु पर्वत चलायमान नहीं होता-और जो भज्ञानी है भोर विचारसे रहित मूढ़ है उसको भोग प्रास कर लेते है-जैसे जल से रहित मछली को बगुला खा लेता है। जिसको सर्व प्रात्मा भासता है वह सम्यदर्शी पुरुष कहाता है-वही मुक्तरूप है। इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे सम्यक्शानवर्णननाम चतुस्सप्ततितमस्सर्गः ॥७॥