पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७६१

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उपशम प्रकरण ७५३ सदाशिव के शुटीगण अपना रक्त मांस माता को देते थे परन्तु धैर्य में ये इससे खेद को न प्राप्त हुए और नाना प्रकार की क्रिया करते थे परन्तु जीवन्मुक्त थे इससे सदा सुखी थे। नारद मुनि सदा मुक्तस्वभाव है भोर सदा जगत् की क्रियाजाल में रहते हैं परन्तु क्षोभ नहीं पाते इससे जीव- न्मुक्त हैं। मनमौन जो विश्वामित्र है वे वेदोक्त कर्म करते फिरते रहते हैं इससे जीवन्मुक्त हैं । सूर्य भगवान् दिन को प्रकाश करते हैं और फिरते रहते हैं परन्तु जीवन्मुक्त और सदासुखी रहते हैं । यह सदा जीवों को दण्ड करते रहते हैं और क्षोभ में रहते हैं परन्तु जीवन्मुक्त हैं। इन्द्र कुबेर से आदि लेकर त्रिलोकी में बहुत जीवन्मुक्त हैं जो व्यवहार में शीतल हैं। कोई मूढ़ शिलावत् हो रहे हैं, कोई परम बोधवान वन में जा स्थित हुए हैं-जैसे भृगु, भारद्वाज और विश्वामित्र, बहुतेरे चिरकालपर्यन्त राज- पालन करते रहते हैं-जैसे जनक, मान्धाता आदि, कोई भाकाश में बड़ी कान्ति धारकर बृहस्पति, चन्दमा, शुक्र, सप्तर्षि मादिक स्थित हुए हैं, कोई स्वर्ग में अग्नि, वायु, कुवेर, यम, नारदादिक हैं, पाताल में जीवन्मुक्त प्रह्लादादिक हुए हैं । कोई देवतारूप धारकर आकाश में स्थित हैं कोई मनुष्यरूप धारकर मनुष्यलोक में स्थित हैं और कोई तिर्ययोनि में स्थित हैं उनको सर्वथा, सर्वप्रकार सर्व में सर्वात्मारूप हो भासता है. कुछ मिन नहीं भासता। नाना प्रकार का व्यवहार है सो भी भदैत से किया है । हे रामजी! दिव्य विष्णु, विधाता, सर्व ईश्वर मौर शिव मादिक सब भात्मा के ही नाम हैं। वस्तुरूप में जो भवस्तु है और भवस्तु में जो वस्तु है सो अवस्तु से वस्तु तब निकलता है जब युक्ति होती है और वस्तु से भवस्तु भी युक्ति से ही दूर होती है। जैसे अवस्तुरूप, स्ते से सुवर्ण युक्ति से निकलता है और वस्तुरूपी सोने से मैल युक्ति से दूर होता है तैसे ही अवस्तुरूप देहादिकों में वस्तुरूप प्रात्मा शानों की युक्ति से पाता है और वस्तुरूप आत्मा से दृश्यरूप प्रवस्तु भी शाखों की युक्ति से दूर होती है। हे रामजी । जो पापों से भय करता है वह जब धर्म में प्रवर्तता है तब निर्भय होता है और दुखों के भय से जीव मात्मपद की भोर प्रवर्तता है तब भावना के वरा से असत् से सत्पाता