पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७५४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

७४६ योगवाशिष्ठ। हे रामजी ! जैसे केसरी सिंह पिंजड़े को तोड़कर निकलता है तेसे ही बानवान् पुरुष भोगवासना के बन्धन को तोड़ डालता है। हे रामजी। जैसे रखकोत्रिलोकी काराज्य मिलने से वह भानन्द कोमात हो तेसे ही बानवान को प्रात्मा के साक्षात्कार हुए भानन्द प्राप्त होता है और वह परम निर्मल लक्ष्मी से शोभता है जब हृदय से प्राशारूपी मैल जाता है तबजैसे शरत्काल कामाकाश निर्मल शोभता हे तेसे ही वह शोभता है। हे रामजी ! बानवान पुरुष अपने पापमें नहीं समाता-जैसे महाकल्प का समुद्र नहीं समाता और जैसे मेघ जल को त्यागकर मौन हो जाता है तैसे ही ज्ञानवान माशा को त्यागकर भात्ममौन हो जाता है। जैसे अग्नि लकड़ी को जलाकर धुएँ से रहित अपने पापमें स्थित हो जाती है तैसे ही चित्त की वृत्ति से रहित हुमा मात्मपद में निर्वाण हो जाता है जैसे दीपक निर्वाण हो जाता है तैसे ही निर्वाण हुमा परमानन्द को प्राप्त होता है। जैसे अमृत को पानकर पुरुष मानन्दवान होता है तैसे ही वह परमानन्द से पूर्ण अपने आपमें प्रकाशता है जैसे वायु से रहित दीपक प्रकाशता है पौरशुद्ध मणि अपने प्रकाश से प्रकाशती है तैसे ही ज्ञानवान अपने भाप- से प्रकाशता है। मैं सर्वात्मा, सर्वगत, ईश्वर, सर्वाकार, निराकार, केवल चिदानन्द प्रात्मा हूँ और सदा अपने आपमें स्थित हूँ। हे रामजी बानी अपने भापको ऐसे जानते हैं और पूर्व के व्यतीत हुए दिन को हँसते हैं। मैं तो अनन्त मात्मा हूँ, माया के भ्रम से भापको कर्ता भोक्ता मानता था। ऐसे जानकरजोरागदेष से रहित परम शान्ति को पास होता है उसके सब ताप निवृत्त हो जाते हैं, उसकी सदा पात्मा में प्रीति रहती है, उसका चित्त सब भोर से पूर्ण हो जाता है, वह सबको पवित्र करनेवाला होता है, वह कामरूपी चक्र से मुक्त होकर जन्मों के बन्धन काट डालताहै,राग देष भादिक द्वन्द और सर्वभय से मुक्त होता है, भविद्यारूपी संसारसमुद्र से तर जाता है, उत्तम लक्ष्मी को प्राप्त होता हे अर्थात् परमपद पाता है और फिर संसार के जन्म-मरण को नहीं प्राप्त होता और उसके कर्मों का मन्त हो जाता है। हे रामजी वानवान की क्रिया को देखकर भोर सब वाञ्छा करते हैं परन्तु मोरों की क्रिया को देखकर मानवार किसी की