पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७५२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

७४४ योगवाशिष्ठ। अधिक अभिमान होता है-जैसे ज्यों ज्यों मद्यपान करता है त्यों-त्यों उन्मत्त होता है । हे रामजी! यह नाना प्रकार का दृश्य प्रज्ञान से भासता है।जैसे सूर्य की किरणों से मरुस्थल में जल भासता है तैसे ही असम्यक् बान से प्रात्मा में जगत् भासता है। एक कखना के फरने से मन, बुद्धि, चित्त, महंकार, इन्द्रियाँ भौर देह भासती हैं, एक फरने की ही इतनी संबा है। जैसे एक जल की भनेक संज्ञा होती हैं तैसे ही एक फुरने की अनेक संज्ञा हुई हैं । जो चित्त है सो महंकार है, जो अहंकार है वही मन है और जो मन है वही बुद्धि है। इसमें कुछ भेद नहीं । जैसे बरफ और शुक्लता और शीतलता में कुछ भेद नहीं तैसे ही मन, बुद्धि भादिक में कुछ भेद नहीं, एक के नाश हुए दोनों का नाश हो जाता है। इससे मन में जो कुछ कलना है उसका त्याग कर मोक्ष की इच्छा का भी त्याग करोभोर वन्धनवृत्ति का भीत्याग करो। हे रामजी! वैराग्य और विवेक का अभ्यास करके मन को निर्मल करो। जब मन निर्मल होगातब मन का मननभाव नष्ट हो जावेगा। जब यह फुरना फुरता है कि 'मैं मुक्त होऊँ' तब भी मन जग पाता है और मन के जागे से मनन भी हो भाता है। जब मनन हुआ तव अपने साथ शरीर भी भासि भाता है भनेक दुःख भी भासि भाते हैं । हे रामजी! आत्मतत्त्व सबसे प्रतीत है और सर्वरूप भी वही है तब कौन बन्ध है और कोन मोक्ष है ?जब मन का मनन निवृत्त हुमा तब न कोई बन्ध है भोर न कोई मुक्त है-मात्मा सर्वक्रिया से प्रतीत है। किया भी इस प्रकार होती है जैसे कि वायु के हिलने से वृक्ष के पत्र और फूल हिलते हैं तैसे ही प्राणों के फरने से हाथ पाँव भादिक इन्द्रियाँ चेष्टा करती हैं। हे रामजी! चैतन्यशक्ति सर्वव्यापी, सूक्ष्म और अचल है, वह न पापही चलती है, न और किसी की प्रेरी हुई चलती है, सदा स्थितरूप है। जैसे मेरु पर्वत न मापही चलता है और न वायु से चलाया चलता है। हे रामजी जितने पदार्थ भासते हैं सो पात्मरूपी दर्पण में प्रतिविम्बित भासते हैं। जैसे सर्वपदायों को दीपक प्रकाशता है तैसे ही सवपदार्थों कोमात्माप्रकाश करता है। सबपदार्थों में एकमात्मा मनुस्यूत प्रकाशता हे भोर महं त्वं मादिक कलना से रहित है जहाँ महंवं भादिक