पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७५१

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उपशम प्रकरण ७४३ उसको भादि से लेकर अन्तपर्यन्त भली प्रकार विचार देखो और इस युक्ति से शोक का त्याग करो-मूखों के समान लोगों में शोक मत करो। हे सुमते ! बन्धमोक्ष की कल्पना का त्याग करो । नबन्ध के त्याग की इच्छा करो और न मोक्ष के प्राति की इच्छा करो, यन्त्री का पुतला- वत् अभिमान से रहित चेष्टा करो-सका नाम मात्ममौन है। हे रामजी! मोक्ष भाकाश में नहीं और न पाताल में है, न भूमिलोक में है-चित्त का निर्मल होना ही मोक्ष है। मनात्मा के साथ आपको मिलाना और उसमें प्रात्माभिमान करना यह मल है और इसका त्याग करना भोर शुद्ध भात्मा में चित्त का लगाना इसका नाम मोक्ष है । जब चित्त से गुणों में वृत्ति का त्याग हो और सम्यक् मात्मवान हो उसी को तत्त्वदर्शी मोक्ष कहते हैं। हे रामजी । जब तक भात्मबोध नहीं होता तब तक यह दीन दुःखी होता है और जब मात्मा का निर्मल बोध होता है तब दुःखों से मुक्त होता है इससे भौर उपायों को त्याग भक्ति करके मोक्ष की वाञ्छा करो भोर चिरकाल से जब इस बोध को साथ चित्त विस्तृत पद को प्राप्त हुभा तब दश मोक्ष की भी इच्छा नहीं रहती एक मोक्ष तो क्या है। हे रामजी ! जीव को और कोई उपाय मोक्ष का नहीं, भात्मबोध को ही पाकर सुखी होगे । जब वित्त मचित्त होता है तब सब जगभ्रम मिट जाता है और जगत् भी कुछ दूसरी वस्तु नहीं, अदैत भात्मतत्त्व ही है और जो वही है तो बन्ध किसको कहिये और मोक्ष किसको कहिये ? बन्ध मोक्ष की कल्पना तुच्छ है उसका त्याग कर चक्रवर्ती हो पृथ्वी की पालना करो तो तुमको कर्तृत्व का स्पर्श कुछ न होगा। इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे प्रात्मविचारो नामाष्टषष्टितमस्सर्गः॥१८॥ वशिष्ठजी बोले, हे रामजी ! संकल्प से ही जगत् उपजा है । भवान से भापको शरीर जानता है और अपने संकल्प को उपजा के अपना स्वरूप जानता है। जैसे कोई सुन्दर पुरुष हो और उसको देखे बिना कुरूप जाने तैसे ही प्रात्मा के साक्षात्कार बिना देहरूप भात्मा को जानता हेकि में देह हूँ। ज्यों-ज्यों मात्मा का प्रमाद होता है त्यों-त्यों देह में