पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७४७

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

उपशम प्रकरण ७३६ होगे तब भौतिक देह से प्रापको भिन्न जानोगे जैसे वायुमण्डल को पाप्त हुमा पक्षी पृथ्वीमंडल को भी देखता है तेसे ही तुम भात्मपद में स्थित होकर देहादिक भूतों को देखोगे। हे रामजी। तुम देहादिकभूतों को देखके त्याग करो और तुरीयातीत अजन्मा पुरुष हो रहो तब तुम परम प्रकाश को पावोगे । जैसे सूर्यकान्त मणि सूर्य के उदय हुए परम प्रकाश को प्राप्त होता है तेसे ही जब बोध करके दृष्टा, दर्शन, दृश्यभाव तुम्हारा जाता रहेगा तब तुम अपने भाव को ज्यों का त्यों जानोगे। जैसे मनुष्य मय से मत्त हो जाता है और मद्य के उतरे से मापको ज्यों का त्यों जानता है भोर मद्य को स्मरण करता है तेसे ही स्मरण करोगे। भात्मतत्त्व का जो स्पन्द फुरना हुआ है उसी का नाम चित्त है सो अवस्तुरूप है। जैसे समुद्र में तरङ्ग उदय होते हैं सो कुछ वस्तु नहीं तैसे ही चित्तादिक कुछ वस्तु नहीं, भ्रान्तरूप हैं । इस प्रकार जानकर महाबुद्धिमान वीतराग निष्पापरूपी जीवन्मुक्त हुए हैं और महाशान्तपद की प्राप्ति में विचरते हैं । जैसे रत्नमणि की किञ्चन नाना प्रकार की लहर होती है सो मननकलना के सहित यह चमत्कार हे तैसे ही मनुष्यों में जो वानवान् उत्तम पुरुष हैं उनका व्यवहार कलना से रहित होता है जैसे कूप में प्रतिविम्ब पड़ता है और आकाश में प्रति उड़ती भासती है पर माकाश मलिन नहीं होता तैसे ही ज्ञानवान् पुरुष अपने व्यवहार में कर्तृत्व के अभिमान को नहीं प्राप्त होता । जैसे मेघ के माने जाने से समुद्र को रागदेष नहीं होता तैसे ही भात्मा ज्ञेय पुरुष को भोगों के माने जाने में राग द्वेष नहीं होता। हे रामजी | जिस मन में जगत् के किसी पदार्थ की मननवासना नहीं फुरती उस चित्त में जो कुछ फरना भासता है सो विलासस्वरूप जानो वह उसको बन्धन का कारण नहीं होता और जिस चित्त में महं त्वं मादिक जगत् की भावना है परन्तु हृदय से उसकी सत्य बुद्धि है उससे वह दृश्य दष्टा और दर्शन सम्बन्धी तीनों कालों संयुक्त जगत् को फैलावेगा। जो कुछ दृश्य है वह असवरूप है और जो सत्य है सो एक भव्यक्तरूप है। उसका माश्रय करके मलेप हो तब हर्ष शोक की दशा कहाँ है ? जो कुछ दृश्यजगत्